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________________ पउमचरियं [६. १३१ ते दो वि तम्गयमणा, मुणिवरमुहकमलनिग्गय धम्मं । सुणिऊण निययचरिय, पुच्छन्ति पुणो पयत्तेणं ॥ १३१ ।। नइ एव धम्मरहिओ, जीवो परिभमइ दीहसंसारे । तो कह पुणाइ अम्हे, एत्थं परिहिण्डिया भयवं! ।। १३२ ।। अह साहिउं पवत्तो. पुबभवं मुणिवरो महरभासी । सुणह इओ एगमणा. कहेमि तुझं समासेणं ॥ १३३ ॥ एयम्मि परिभमन्ता, पुरिसा संसारमण्डले घोरे । घायन्ति एकमेकं. दोणि वि मोहाणुभावेणं ॥ १३४ ।। अह कम्मनिज्जराए, दोण्णि वि पुरिसा तो समुप्पन्ना । वाणारसीऍ एक्को, जाओ वाहो महापावो ॥ १३५ ॥ सावत्थीनयरीए, बीओ वि हु मन्तिनन्दणो जाओ । दत्तो नामेण तओ, पबइओ नायसंवेगो ॥ १३६ ॥ विहरन्तो संपत्तो, कासिपुरे सुत्थिए वरुज्जाणे । तसपाण-जन्तुरहिए, तत्थ ठिओ झोणनोएणं ॥ १३७ ।। लोगो वि पूयणथं, सम्मद्दिट्ठी समागओ तस्स । भावेण विणयपणओ, पयाहिणं कुणइ परितुट्टो ॥१३८ ॥ झाणोवओगजुत्तं, वाहो दह्ण फरुसवयणेहिं । सत्थेसु कुणइ तिबं, विहीसियं तस्स दुट्टप्पा ॥ १३९ ॥ अवसउणो य अलज्जो, पारद्धीफन्दियस्स जाओ मे । तिबं अमङ्गलं चिय, धणु पहरन्तो समुग्गिरइ ॥ १४० ॥ साहू वि झाणजुत्तो, एवं चिन्तेइ तत्थ हियएणं । चूरेमि पावकम्मं मुट्टिपहाराहयं सन्तं ॥ १४१ ॥ तव-संजमेण पुर्व, लन्तगजोगं समज्जियं कम्मं । झाणस्सऽकुसलयाए, जोइसवासित्तणं पत्तं ॥ १४२ ॥ तत्तो चुओ समाणो. इह तडिकेसो तुम समुप्पन्नो । वाहो वि परिभमित्ता, संसारे वाणरो जाओ ॥ १४३ ॥ नो सो बाणेण हओ, तडिकेस! तुमे पवंगमो मरिउ । सो साहुपभावेणं, उदहिकुमारो समुप्पन्नो ॥ १४४ ॥ तडित्केशी तथा महोदधिरवके पूर्वजन्मका वृत्तान्त : हे भगवन् ! यदि धर्मरहित जीव दीर्घ संसारमें परिभ्रमण करता है तो फिर इस संसारमें किस तरह हम दोनों भटकते रहे हैं ? -इसके बारे में आप कहें । (१३१) मुनिमें ही जिनका मन लगा हुआ है ऐसे वे दोनों मुनिवरके मुखकमलसे निकले हुए धर्मको सुनकर अपने-अपने चरितके बारेमें आग्रहसे पूछने लगे । (१३२) मधुरभाषी मुनिवर उन्हें पूर्वभव कहनेके लिये प्रवृत्त हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें तुम्हारे पूर्व जन्मके बारेमें संक्षेपसे कहता हूँ, अतः तुम ध्यानपूर्वक सुनो। (१३३) इस घोर संसार-मण्डलमें भटकते हुए तुम दोनों पुरुष मोहवश एक दूसरेका घात करते थे। (१३४) कर्मकी निर्जरा (क्षय) के लिए तुम दोनों पुरुषों में से एक वाराणसीमें महापापी व्याध हुआ। दूसरा श्रावस्ती नगरीमें दत्त नामका एक मंत्री-पुत्र हुआ। वैराग्य उत्पन्न होनेपर उसने प्रव्रज्या अंगीकार की। (१३५-१३६) विहार करता हुआ वह काशी नगरीमें आया और सुस्थित नामक उत्तम उद्यानके त्रस एवं स्थावर जन्तुओंसे रहित प्रदेशमें ध्यान करने लगा । (१३७) उसकी पूजाके लिये सम्यग्दृष्टि लोग वहा आये और विनयपूर्वक वन्दन करके हर्षित होकर भावपूर्वक प्रदक्षिणा करने लगे । (१३८) उस मुनिको ध्यानमें लीन देखकर वह दुष्टात्मा व्याध कठोर वचनोंसे तथा तीव्र शस्त्रोंसे भयभीत करनेकी चेष्टा करने लगा ।।१३९) धनुषसे प्रहार करता हुआ वह कहने लगा कि 'शिकारके लिये निकले हुए मेरे लिए यह निर्लज्ज अपशकुन और घोर अमंगलरूप हुआ है । (१४०) पीडित होनेपर भी ध्यानलीन वह साधु अपने मनमें सोचता था कि मुक्कोंके प्रहारसे मैं अपने अशुभ कोका क्षय कर रहा हूँ। (१४१) तप एवं संयम द्वारा लान्तक नामक स्वर्गकी प्राप्तिके योग्य उपार्जित कर्मको अकुशल ध्यानके कारण उसने ज्योतिषक देवभावके योग्य कर्ममें परिवर्तित कर दिया । (१४२) वहाँसे च्युत होनेपर तुम तडित्केशी हुए हो। वह व्याध भी संसारमें परिभ्रमण करते-करते बन्दर हुआ। (१४३) हे तडित्केशी! तुमने बाणसे जो बन्दर मारा था वह साधुके प्रभावसे उदधिकुमारके रूपसे उत्पन्न हुआ है। (१४४) १. ठाण जोएण-प्रत्य० । २. रविषेणने पद्मपुराण (६-३२३) में कलुषता शब्दका प्रयोग किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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