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६. १५९]
६. रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो एयं मुणित्त चरियं, परिचयह पुणब्भवेसु जं वत्तं । मा पुणरवि संसारं, वेरनिमित्तेण परिभमह ॥ १४५ ॥ मोत्तण पुबवेरं, पणमह मुणिसुषयं पयत्तेणं । तो अरय-विरय-विमलं. सिवसुहवासं समज्जेह ॥ १४६ ॥ खामेऊण य एत्तो, उदहिकुमारो गओ निययभवणं । तडिकेसो वि य गिण्हइ, मुणिवरपासम्मि पवजं ॥ १४७॥ तस्स य गणेहि सरिसो. प्रत्तो लङ्काहिवो सुकेसो त्ति । एकन्तसुहसमिद्धं, भुञ्जइ रज्जं महाभोगं ॥ १४८॥ काऊण तवमुयारं, सम्म आराहिऊण कालगओ । तडिकेससमणसीहो देवो जाओ महिड्डीओ ॥ १४९ ॥ एत्थन्तरे महप्पा, किक्किन्धिपुराहिवो कुणइ रजं । राया महोयहिरवो, ताव य विज्जाहरो पत्तो ॥ १५० ॥ अह तेण तक्खणं चिय, तडिकेसनिवेयणे समक्खाए । राया महोयहिरवो, तक्खागमेत्तेण संविग्गो ॥ १५१ ॥ अहिसिञ्चिऊण पुत्तं, पडिइन्दं रजभरधुराहारं । राया महोयहिरवो, पवइओ जातसंवेगो ॥ १५२ ॥ झाणगइन्दारूढो, तवतिक्खसरेण निहयकम्मरिऊ । निक्कण्टयमणुकूलं, सिद्धिपुरि पत्थिओ धीरो ॥ १५३ ।। पडिइन्दो वि य राया. पुत्तं किक्किन्धिनामधेयं सो । अहिसिञ्चिऊण रज्जे, दिक्खं जिणदेसियं पत्तो ॥ १५४ ॥ चारित्त-नाण-दसण-विसुद्धसम्मत्तलद्धमाहप्पो। काऊण तवमुयारं, सिवमयलमणुत्तरं पत्तो ॥ १५५॥ एत्थन्तरे नराहिव, वेयड्ढे दक्खिणिल्लसेढीए । विज्जाहराण नयरं, रहनेउरचक्कवालपुरं ॥ १५६ ॥ तत्थेव असणिवेगो, राया विज्जाहराण सबे सिं । पुत्तो य विजयसीहो, बीओ पुण विज्जवेगो ति ॥ १५७ ॥ आइच्चपुराहिवई. मन्दरमालि ति नाम विश्खाओ । भज्जा से वेगवई, तीऍ सुया नाम सिरिमाला ॥ १५८ ॥ तोएँ सयंवरत्थं, विज्जाहरपत्थिवा समाहूया । आगन्तूण य तो ते, मञ्चेसु ठिया य सबे वि ॥ १५९ ॥
इस प्रकार अपना पूर्ववृत्तान्त जानकर पूर्व भवमें जो कुछ हुआ था उसे छोड़ दो और वैरके कारण पुनः संसारमें परिभ्रमण मत करो। (१४५) पहलेके वैर-भावका त्याग करके श्रद्धापूर्वक मुनिसुव्रत स्वामीको वन्दन करोगे तो कर्ममलसे रहित शिवसुख मोक्षस्थान प्राप्त होगा। (१४६) इस प्रकार मुनिके उपदेश देनेपर उदधिकुमार क्षमायाचना करके अपने निवास स्थानकी ओर गया। तडित्केशीने भी मुनिके पास दीक्षा ग्रहण की। (१४७) गुणोंमें उसके समान उसका पुत्र सकेश लंकाका राजा हुआ। वह एकान्त सुखसे समृद्ध उस विशाल राज्यका उपभोग करने लगा। (१४८) उग्र तप तथा सम्यक भाराधना करके तडित्केशी श्रमण महान् ऋद्धिवाला देव हुआ। (१४९)।
इस बीच किष्किन्धि नगरीमें महात्मा महोदधिरव नामका राजा राज्यकर रहा था। उसके समक्ष एक विद्याधर आया। (१५०) उसने आते ही तडित्केशीका निवेदन कह सुनाया। उसे सुनते ही राजा महोदधिरवको वैराग्य उत्पन्न हुआ । (१५१) राज्यके भारकी धुराका वहन करने में समर्थ अपने पुत्र प्रतीन्द्रको राजगद्दीपर बिठाकर विरक्त राजा महोदधिरखने प्रव्रज्या अंगीकार की। (१५२) ध्यानरूपी हाथीके ऊपर आरूढ़ उसने तपरूपी तीक्ष्ण बाणसे कर्मरूपी शत्रुओंको मारकर निष्कंटक एवं अनुकून सिद्धिरूपी नगरीकी ओर प्रस्थान किया। (१५३) प्रतीन्द्र राजाने भी किष्किन्धि नामक पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त करके जिनोपदिष्ट दीक्षा अंगीकार की । (१५४) चारित्र, ज्ञान एवं दर्शन तथा विशुद्ध सम्यक्त्वसे गौरवान्वित उसने सम तप करके निमेल एवं अनुत्तर ऐसा शिवपद प्राप्त किया। (१५५) श्रीमालाके स्वयम्वर तथा युद्धका वर्णन
राजन् ! इसी समय वैतात्य पर्वतकी ओर दक्षिण श्रेणी में विद्याधरोंका रथनूपुर नामक एक नगर था। (१५६) वहाँ अशनिवेग नामका सभी विद्याधरोंका एक राजा राज्य करता था। उसका एक पुत्र विजयसिंह तथा दूसरा विद्यद्वेग था। (१५७) उधर आदित्यपुरमें मन्दरमाली नामका एक विख्यात राजा था। उसको पोका नाम वेगवती तथा पुत्रीका नाम श्रीमाला था। (१५८) उसके स्वयंवरके लिए विद्याधर राजा बुलाये गये। वे सब आकरके मंचों पर बैठे। (१५६)
हराज
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