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पउमचरियं
[६.१०३ दट्ठूण पणइणी सो, थणकलसुन्भिन्नरुहिरविच्छड्। राया वि हु तडिकेसो, बाणेण पवंगर्म हणइ ॥ १०३ ॥ गाढप्पहरपरद्धो, मुच्छावसवेम्भलो पलायन्तो। पडिओ साहुसयासे, पवंगमो थोवजीयासो ॥ १०४ ॥ अह पञ्चनमोकारो, दिन्नो से साहुणाऽणुकम्पाए । मरिऊण समुप्पन्नो, उदहिकुमारो भवणवासी ॥ १०५॥ सरिऊण पुबनम्मं. उदहिकमारो तुरन्तमणवेगो। पत्तो उज्जाणवरे, निययसरीरस्स प्रयत्थे ॥ १०६ ॥ दट ठूण वाणरगणे, सबत्तो खेयरेहि हम्मन्ते । अह कुणइ महाघोरे, पवंगमे जल-थला-ऽऽयासे ॥ १०७ ॥ केएत्थ सिलाहत्था, अवरे गिरि-विविहरुक्खहत्था य । बुक्कारवं करेन्ता, ह्णन्ति चलणेण महिवढें ॥ १०८॥ दट ठूण वाणरगणे, तडिकेसो भणइ महुरवयणेहिं । को एस महासत्तो, जस्स इमं चेट्टियं सहसा? ॥ १०९ ॥ जो सो तुमे नराहिव! सरेण भिन्नो पवंगमो मरि । सो साहुपभावेणं, उदहिकुमारो अहं जाओ ॥ ११०॥ लङ्काहिवो पवुत्तो, उदहिकुमार मणोहरगिराए । तं खमसु मज्झ सवं, अमुणियधम्मस्स पावस्स ॥ १११ ॥ अह ते दोष्णि वि समयं, बन्धवनेहेण मुणिवरसयासं । गन्तूण पणमिऊण य, साहु पुच्छन्ति जिणधर्म ॥ ११२ ॥ साहूण वि ते भणिया, मज्झ गुरू चिट्ठए समासन्ने । सन्तेण तेण तुभं, कहऽहं साहेमि वो धम्मं? ॥ ११३ ॥ जो गुरवे साहीणे, धम्म साहेइ पोढबुद्धीए । सो पवयणपन्भट्टो, भण्णइ अच्चासणासीलो ॥ ११४ ॥ ते दो वि तेण नीया, नमिऊण गुरुं तहिं चिय निविट्टा । पुच्छन्ति मुणिवरं ते भयवं ! साहेह को धम्मो! ॥ ११५ ॥ नं तेहि पुच्छिओ सो कहेइ धम्म मुणी महाघोसो। जह बरहिणेहि घुटूं, नवपाउसमेहसङ्काए ॥ ११६ ॥
राजा तडित्केशीने बाणसे आहत किया । (१०३) तडित्केशी द्वारा किये गए गाढ़ प्रहारके कारण अत्यन्त पीड़ित और इसीलिए मूच्र्छावश व्याकुल वह बन्दर जीवनकी अल्प आशा रहनेसे एक मुनिके पास जा गिरा। (१०४) उस साधुने अनुकम्पावश पंचनमस्कार सुनाया। मरकर वह उदधिकुमार नामका भवनवासी देव हुआ। (१०५) अपने पूर्वजन्मका स्मरण करके मनकी भाँति वेगशील वह उदधिकुमार तुरन्त उस उद्यानमें अपने शरीरकी पूजाके लिए आया। (१०६) चारों ओर विद्याधरों द्वारा मारे जाते वानरगणको देखकर उसने जल, स्थल एवं आकाशमें अत्यन्त भयंकर वानरोंकी रचना की । (१०७) कई बन्दरोंके हाथों में शिलाएँ थीं तो दूसरेके हाथोंमें पर्वतपर उगे हुए विविध वृक्ष थे। वे गर्जना कर रहे थे और अपने पैरोंसे जमीन ठोक रहे थे। (१०८, वानरोंके समूहोंको देखकर तडित्केशीने मीठे शब्दोंमें पूछा कि जिसने अकस्मात ऐसी चेष्टा की है, ऐसा यह महासमर्थ व्यक्ति कौन है। (१०९) इसपर उसने कहा कि, हे नराधिप! आपने बाणसे जिस बन्दरको आहत किया था, वह मैं मरकर एक साधुके प्रभावसे उदधिकुमार हुआ हूँ। (११०) यह सुनकर लंकानरेश मनोहर वाणीमें उदधिकुमारसे कहने लगा कि धर्म एवं पापसे अनभिज्ञ मेरे सब अपराध तुम क्षमा करो। (१११) इसके पश्चात् वे दोनों साथ ही बान्धवोचित प्रेमके साथ मुनिवरके पास गए और वन्दन करके उनसे जिनधर्मके बारे में पूछने लगे। (११२) इसपर साधुने उनसे कहा कि मेरे गुरु पासमें ही स्थित हैं। उनके रहते हुए मैं तुम्हें धर्मका उपदेश कैसे दे सकता हूँ? (११३) जो गरुसे स्वाधीन होकर अपनी प्रगल्भ बुद्धिसे धर्मका उपदेश देता है वह पेटू, जिनशासनसे पतित कहा जाता है। (११४) वह साध उन दोनोंको अपने गुरुके समीप ले गया। गुरुको नमस्कार करके वे वहीं बैठे। बादमें उन्होंने मुनिवरसे पछा कि भगवन् ! धर्म क्या है वह आप कहें ? (११५)
इस प्रकार उनके पूछनेपर महाघोष मुनि, वर्षाकालमें नये-नये बादलोंको आशंकासे मोर के केकारव के समान मधुर स्वरसे धर्मका उपदेश देने लगे । (११६)
मनिवर द्वारा दिया गया धर्मोपदेश परमार्थके विस्तारको न जाननेवाले तथा आरम्भ-परिग्रहमें रत कोई कोई मनुष्य
१. विह्वलः ।
२. स्तोकजीविताशः। ३. साहेहि मे धर्म-प्रत्य०। ।
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