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६. १०२]
५. रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो वाणरचिन्धेण इमे, छत्ताइ निवेसिया कई जेण । विजाहरा नणेणं, वुच्चन्ति हु वाणरा तेणं ॥ ८९ ॥ सेयंसस्स भयवओ, जिणन्तरे तह य वासुपुज्जस्स । अमरप्पभेण एयं, वाणरचिन्धं परिट्टवियं ॥ ९० ॥ अन्ने वि एवमाई, विज्जाहरपत्थिवा महासत्ता । सेवन्ति पुवचरियं, किक्किन्धिपुरे जहिच्छाए ॥ ९१ ॥ एवं वाणरवंसस्स संभवो नरवई ! समक्खाओ । अन्नं चिय संबन्धं, सुणाहि एत्तो पयत्तेण ॥ ९२ ॥ राया महोयहिरवो, किकिन्धिपुरुत्तमे कुणइ रज्जं । विजुप्पभाएँ सहिओ, सुरलोगगओ सुरबरोब || ९३ ।। अट्ठत्तरं सयं से, पुत्ताणं सुरकुमारसरिसाणं । बलदप्पगबियाणं, पडिवक्खगइन्दसीहाणं ॥ ९४ ॥ मुणिसुबयस्स तित्थं, तइया वट्टइ भवोहमहणस्स । विज्जाहर-सुर-नरवइ-ससि-सूरसमच्चियकमस्स ॥९५ ॥ लङ्कापुरीऍ सामी, तडिकेसो नाम नरवई तइया । रक्खसर्वसुब्भूओ, भुञ्जइ रज्जं महाभोगं ॥ ९६ ॥ दोहं पि ताण एकं, अञ्चन्तसिणेहनिब्भरं हिययं । नवरं पुंणाइ देह, अन्नोन्नं केवलं जायं ॥ ९७ ॥ नाऊण वि तडिकेसं, पबइयं सबसङ्गओमुक्कं । राया महोयहिरवो, सो वि य दिक्ख समणषत्तो ॥९८॥ अह भणइ मगहराया, तडिकेसो कम्मि कारणनिमित्ते । पबइओ खायजसो? कहेह भयवं! परिफुडं मे ॥ ९९ ।। तो भणइ गणहरिन्दो, तडिकेसो सुणसु पउमउज्जाणे । अन्तेउरेण सहिओ, रमिऊण सयं समाढत्तो ॥ १०० ॥ वरबउल-तिलय-चम्पय-असोग-पुन्नाग-नागसुसमिद्धे । नन्दणवणे व सको, सुरवहुयासहगओ रमइ ॥ १०१ ॥ अह कोलणसत्ताए, सिरिचन्दाए पवंगमो सहसा । पडिओ य तीऍ उवरिं, नहेहि फाडेइ थणकलसे ॥ १०२ ॥
विद्याधर वानर कहलाये । (८९) भगवान् श्रेयांसनाथ तथा जिनेश्वर वासुपूज्य स्वामोके वीचके समयमें अमरप्रभने वानर-चिह्नकी स्थापनाकी। (९०) किष्किन्धि नगरीमें दूसरे भी जो महासत्त्वशाली विद्याधर हुए वे सभी पूर्वपुरुषके चरितका स्वेच्छापूर्वक आचरण करते हैं । (९१) हे राजन् ! इस प्रकार वानरवंशकी उत्पत्तिके बारेमें मैंने कहा। दूसरे सम्बन्धके बारेमें तुम ध्यानपूर्वक सुनो । ( ९२)
देवलोकमें रहनेवाले देवकी भाँति किष्किन्धि नामकी उत्तम नगरीमें राजा महोदधिरन विद्यत्प्रभाके साथ राज्य करता था। (६३) उसके देवकुमारके सदृश सुन्दर, बल एवं दपसे गर्वित तथा शत्रुरूपो हाथियों के लिये सिंहतुल्य एक सौ आठ पुत्र थे। ( ९४) संसार रूपी समुद्रका मन्थन करनेवाले, तथा विद्याधर, देव, राजा, चन्द्र और सूर्य जिनके चरणोंकी पूजा करते हैं ऐसे मुनिसुव्रत स्वामीका शासन उस समय प्रवर्नित था। (९५) उस समय लंकापुरीका स्वामी
और राक्षसवंशमें उत्पन्न तडित्केशी नामका राजा अतिविशाल राज्यका उपभोग करता था। (९६) अत्यन्त स्नेहसे भरा हुआ उन ( महोदधिरत्न तथा तडित्केशी) दोनोंका हृदय एक था। एक दूसरेका शरीर ही सिफ़ अलग-अलग था। (९७) सर्व प्रकारकी आसक्तिसे मुक्त होकर तडित्केशी प्रवजित हुआ है ऐसा जानकर महोदधिरत्नने भी दीक्षा अंगीकार की। (८) तडित्केशीके दीक्षा अङ्गीकार करनेका कारण :
___ इसपर मगधराज श्रेणिकने पूछा-'हे भगवन् ! ख्यातयश तडित्केशीने किसलिए दीक्षा ली, इसके बारेमें आप मुझे विशेष स्पष्ट रूपसे कहें ?' (९९) तब गणधरोंमें इन्द्रतुल्य गौतम स्वामीने कहा-'सुनो ! एक दिन अपने अन्तःपुरके साथ तडित्केशी पद्मोद्यान में क्रीड़ा करनेके लिये गया। (१००) सुन्दर बकुल, तिलक, चम्पक, अशोक, पुन्नाग, एवं नाग नामक वृक्षोंसे समृद्ध नन्दनवनमें देवकन्याओंके साथ इन्द्र जिस प्रकार क्रीड़ा करता है, उस प्रकार वह वहाँ क्रीड़ा करने लगा। (१०१) क्रीड़ामें आसक्त श्रीचन्द्रा रानीके ऊपर एक बन्दर सहसा गिरा और नखोंसे उसके दोनों स्तन फाड़ डाले। (१०२) अपनी इस प्रकार आहत प्रियाको देखकर कलश जैसे बड़े स्तनोंका विदारण करके रुधिर बहानेवाले उस बन्दरको
१. पुनः ।
२. भिन्नम् ।
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