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पउमचरियं
[६.७३ विविहकला-ऽऽगमकुसलो, मन्ती तं भणइ महुरवयणेहिं । तं कारणं सुणिज्जउ, जेणेऍ पवङ्गमा लिहिया ॥ ७३ ।। पुर्व पहाणपुरिसो, सिरिकण्ठो नाम आसि विक्खाओ । अमरपुरसरिससोहं, किक्किन्धिपुरं कयं जेण ॥ ७४ ॥ तेणं चिय पढमयरं, आहाराईसु पवरपीईए। घेत्तण बन्धवा इव, देवब्भूया परिट्टविया ॥ ७५ ॥ तत्तो पभूइ जे वि हु, कुल-वंसे नरवई समुप्पन्ना । ताणं पि मङ्गलथं, तित्थं चिय वाणरा जाया ॥ ७६ ॥ जेणं परंपराए, तुम्ह कुले वाणरा परिट्ठविया । तेणं इमे नराहिव! आलिहिया मङ्गलनिमित्तं ॥ ७७ ।। जं जस्स हवइ निययं, कुलोचियं मङ्गलं मणूसस्स । तं तस्स कीरमाणं, करेइ सुहसंपयं विउलं ॥ ७८ ॥ एवं सुणित्त वयणं, भणइ निवो किं इमे धरणिषट्टे । आलिहिया कुलजेट्ठा!, पाएसु जणेण छिप्पन्ति ॥ ७९ ॥ छत्तेसु तोरणेसु य, धएसु पासायसिहर-मउडेसु । काऊण रयणघडिए, ठावेह पवङ्गमे सिग्धं ॥ ८० ॥ एवं च भणियमेत्ते, छत्ताइ विणिम्मिया मणिविचित्ता । वाणरविविहायारा, दिसासु सबासु पज्जत्ता ॥ ८१ ।। अह अन्नया कयाई, राया अमरप्पभो य वेयड्ढे । जिणिऊण रिउ नियत्तो, भुञ्जइ रज्जं महाभोगं ॥ ८२ ॥ अमरप्पभस्स पुत्तो, नामेण कइद्धओ समुप्पन्नो । तस्स वि य हवइ भज्जा, सिरिप्पभा रूवसंपन्ना ॥ ८३ ।। रिक्खरओ य अइबलो, गयणाणन्दो य खेयरमरिन्दो । गिरिनन्दो वि य एए, अन्नोन्नसुयाऽऽणुपुबीए ॥ ८४ ॥ एवं अणेयसंखा, बोलीणा वाणराहिवा वीरा । काऊण जिणवरतवं, सकम्मणियं गया ठाणं ॥ ८५ ॥ जं जस्स हबइ निययं, नरस्स लोगम्मि लक्खणावयवं । तं तस्स होइ नाम, गुणेहि गुणपच्चयनिमित्तं ॥ ८६ ॥ खग्गेण खग्गधारी, धणुहेण धणुद्धरो पडेण पडी । आसेण आसवारो, हत्थारोहो य हत्थीणं ॥ ८७ ॥ इक्खूण य इक्खागो, जाओ विजाहराण विजाए । तह वाणराण वंसो, वाणरचिन्धेण निबडिओ ॥ ८८ ॥
'जिसलिए ये बन्दर चित्रित किये गए हैं उसका कारण आप सुनें । (७३) पूर्वकालमें श्रीकण्ठ नामका एक विख्यात प्रधानपुरुष हो चुका है जिसने अलकानगरीके समान शोभावाली किष्किंन्धि नामकी नगरी बसाई थी। (७४) उसीने सर्वप्रथम देवके जैसे अद्भत इन्हें पकड़कर बान्धवोंको भाँति आहार आदि कार्यों में अत्यन्त प्रेमपूर्वक नियुक्त किया था। (७५) तबसे लेकर आपके वंशमैं जो कोई भी राजा हुआ उसके मंगलके लिए ये तीर्थरूप अर्थात् पवित्र माने जाते हैं। (७६) चकि परम्परा से आपके कुलमें वानरोंकी स्थापना होता रही है, अतएव, हे राजन् ! मंगलके लिए इन वानरोंका चित्रण किया गया है । (७७) जिस मनुष्यका अपनी कुल परम्पराके अनुसार जो मंगल आचार होता है, उसके करनेसे वह विपुल समृद्धि प्रदान करता है। (७८) ऐसा कथन सुनकर राजाने कहा कि-इन कुलज्येष्ठोंका आलेखन जमीनपर क्यों किया जाता है ? लोग पैरोंसे इन्हें कुचलते हैं । (७९) अतः रत्नोंसे इन बन्दरोंका आलेखन करके छातोंमें, तोरणोंमें, ध्वजाओंपर, महलोंके शिखर तथा मुकुटोंमें इनकी स्थापना करो।' (८०) इस प्रकार कहनेपर सब दिशाओंमें-चारों ओर बन्दरोंके विविध आकारोंसे युक्त तथा मणियोंसे शोभित काको छाते आदि बनाये गए । (८१)
बादमें अमरप्रभ राजा वैताठ्य पर्वतमें शत्रुओंको जीतकर वापस लौटा और अत्यन्त समृद्ध राज्यका उपभोग करने लगा । (२) अमरप्रभको कपिध्वज नामका पुत्र हुआ। उसकी भार्या श्रीप्रभा भी रूपवती थी। (८३) उसके पश्चात् क्रमशः ऋक्षराज, अतिबल, गगनानन्द, खेचरनरेन्द्र और गिरिनन्द ये एक दूसरेके पुत्र हुए । (८४) इस प्रकार वीर बानर राजाओंकी अनेक संख्या व्यतीत हुई। वे जिनवर द्वारा उपदिष्ट तप करके अपने-अपने कर्मजन्य स्थान पर अर्थात् स्वर्ग अथवा मोक्षमें गये । (८५) इस लोकमें जिसका जो नियत लक्षण (चिह्न होता है वह, उसके गुणोंकी पहचानके लिये, उसका नाम हो जाता है। (८६ ) जिस तरह खगसे खड्गधारी, धनुषसे धनुर्धारी, पटसे पटी ( कपड़ावाला), घोड़ेसे घुड़सवार, हाथीसे हस्तिपक (हाथीका महावत), इक्षुसे इक्ष्वाकु तथा विद्यासे विद्याधर वंश होता है, उसी तरह वानरके चिह्न से वानरोंका वंश अभिव्यक्त होता है। (८६-८८) चूंकि वानरके चिह्नसे लोगोंने छत्र आदि चिह्नित किये थे, इसलिये वे
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