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________________ पउमचरियं ताव चिय गयणयले, · गयवर-रह-जोह-तुरयसंघट्ट । उत्तरदिसाएँ पेच्छई, एज्जन्तं साहणं विउलं ॥ १४ ॥ कित्तिधवलेण दूओ, पेसविओ महुर-सामवयणेहिं । अह सो वि तुरियचवलो, सिग्धं पुप्फुत्तरं पत्तो ॥ १५ ॥ काऊण सिरपणाम, दूओ तं भणइ महुरवयणेहिं । कित्तिधवलेण सामिय!. विसजिओ तुज्झ पासम्मि ॥ १६ ॥ उत्तमकुलसंभूओ, उत्तमचरिएहि उत्तमो सि पहु!। तेणं चिय तेलोके, भमइ जसो पायडो तुज्झ ॥ १७ ॥ अह भणइ कित्तिधवलो, सामि ! निसामेहि मज्झ वयणाई। सिरिकण्ठो य कुमारो, उत्तमकुल-रू वसंपन्नो ॥ १८ ॥ उत्तमपुरिसाण जए, संजोगो होइ उत्तमेहि समं । अहमाण मज्झिमाण य, सरिसो, सरिसेहि वा होज्जा ॥ १९ ॥ सुट्ट वि रक्खिज्जन्ती, थुथुक्कियं रक्खिया पयत्तेणं । होही परसोवत्था, खलयणरिद्धि च वरकन्ना ॥ २० ॥ दोण्णि वि उत्तमवंसा, दोण्णि वि वयसाणुरूवसोहाई । एयाण समाओगो, होउ अविग्यं नराहिबई ! ॥ २१ ॥ जुज्झेण नत्थि कजं, बहुजणघाएण कारिएण पह! । परगेहसेवणं चिय, एस सहावो महिलियाणं ॥ २२ ॥ एवं चिय वट्टन्ते, उल्लावे ताव आगया दूई । नमिऊण चलगकमले, विज्जाहरपत्थिवं भणइ ॥ २३ ॥ अह विनवेइ पउमा, सामि ! तुमं चलगवन्दणं काउं। सिरिकण्ठस्स नराहिव! थेवो विहु नत्थि अवराहो ॥ २४ ॥ सयमेव मए गहिओ, एसो कम्माणुभावजोएण । अन्नस्स मज्झ नियमो, नरस्स एवं पमोत्तणं ॥ २५ ॥ बहुसत्थ-नीइकुसलो, राया परिचिन्तिऊण हियएणं । दाऊण तस्स कन्नं, निययपुरं पत्थिओ सिग्धं ॥ २६ ॥ मग्गसिरसुद्धपक्खे, नक्खत्ते सोणे तओ दियहे । वत्तं पाणिग्गहणं, अणन्नसरिसं वसुमईए ॥ २७ ॥ समय आकाशमें उत्तर दिशाकी ओर हाथी, रथ, योद्धा व घोड़ेसे युक्त विपुल सेनाको आते हुए उसने देखा । (१४) कीर्तिधवलने भो मधुर एवं शान्तिजनक वचनोंके साथ दूतको भेजा। तेज़ और चपल वह दूत भी शीघ्र ही पुष्पोत्तरके पास जा पहुँचा । (२५) सिरसे प्रणाम करके मधुर वचनसे उसने कहा कि 'हे स्वामी! कीर्तिधवलने मुझे आपके पास भेजा है। (१६) हे प्रभो! आप उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हैं तथा उत्तम आचरणके कारण स्वयं आप भी उत्तम हैं। इसीलिये आपका विशद यश त्रैलोक्यमें परिभ्रमण करता है। (१७) हे स्वामी! कोतिधवलने कहलाया है कि श्राप मेरी बात सुनें। श्रीकण्ठकुमार भी उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा रूपसम्पन्न है । (१८) विश्वमें उत्तम पुरुषोंका सम्बन्ध उत्तम पुरुषोंके साथ होना चाहिए। इसी प्रकार अधमका अधमके साथ और मध्यमका मध्यमके साथ सम्बन्ध होना चाहिए। अर्थात् सदशके साथ ही सहशका सम्बन्ध उचित है । (१९) भलीभाँति प्रयत्न पूर्वक रक्षा की जाय या तिरस्कारके साथ रक्षा की जाय, पर उत्तम कन्या तो दुष्ट पुरुषको ऋद्धिके समान दूसरेके द्वारा ही उपभोग्य होती है। (२०) हे राजन् ! दोनों हो उत्तम वंशके हैं, दोनों हो वयके अनुरूप रूपसम्पन्न हैं। अतः इन दोनोंका निविघ्न समागम होना चाहिए । (२१) हे प्रभो! अनेक जनोंका घात करनेवाले युद्धका कोई प्रयोजन नहीं है। दूसरोंके घरकी सेवा यह तो स्त्रियोंका स्वमाव है।' (२२) इस प्रकार वार्तालाप हो रहा था कि एक दूती आई और चरणकमलमें नमस्कार करके विद्याधर राजासे कहने लगी-हे स्वामो! आपके चरणों में वन्दन करके पद्मा विनती करती है कि श्रीकण्ठका इसमें थोड़ा भी अपराध नहीं है। (२३-२४) अपने कर्मके फलस्वरूप ही मैंने स्वयं इसे अंगीकार किया है। इसे छोड़ कर दूसरे पुरुषका मुझे नियम है।' (२५) बहुविधशास्त्र एवं नीतिमें कुशल राजाने मनमें सोचकर अपनी कन्या उसे दी। बादमें जल्दी ही उसने अपने नगरकी ओर प्रस्थान किया । (२६) मार्गशीर्ष महीनेके शुक्ल पक्षमें, उत्तम नक्षत्र व दिनमें उनका जो पाणिग्रहण हुआ वह पृथ्वी पर अद्वितीय था । (२७) १. तिरस्कृत्य । २. परोपभोग्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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