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________________ ६.४३] ६. रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो अह भणइ कित्तिधवलो, सिरिकण्ठं तिबनेहपडिबद्धो । मा वच्चसु वेयई, तत्थ तुमं वेरिया बहवे ॥ २८ ॥ अत्थेत्थ लवणतोए. दीवो मणि-रयणकिरणविच्छुरिओ। कप्पतरुसन्निहहिं. संछन्नो पायवगणेहिं ॥ २९ ॥ भीमा-ऽइभीमहेउं, दक्खिण्णं सुरवरेहि काऊण । पुर्व चिय अणुणाया, खेयरवसहा इहं दीवे ॥ ३० ॥ दीवो संझावेलो, मणपल्हाओ सुवेलकणयहरी । नामं सुओवणो वि य, जलअज्झाओ य हंसो य ॥ ३१ ॥ नामेण अद्धसग्गो, उक्कडवियडो स्थ रोहणो अमलो । कन्तो फुरन्तरयणो, तोयवलीसो अलङ्को य॥ ३२ दीवो नभो य भाणू, खेमो य हवन्ति एवमाईया। निच्चं मणाभिरामा, आसन्ने देवरमणिज्जा ॥ ३३ ॥ अवरुत्तराएँ एत्तो, दिसाएँ तिण्णेव जोयणसयाइं । लवणजलमज्झयारे, वाणरदीवो ति नामेणं ॥ ३४ ॥ तत्थऽच्छसु वीसत्थो, काऊण पुरं महागुणसमिद्धं । बन्धवजणेण सहिओ, सुरवरलील विडम्बन्तो ॥ ३५ ॥ नेत्तस्स पढमदिवसे, सिरिकण्ठो निग्गओ सपरिवारो । रह-गय-तुरयसमग्गो, दीवाभिमुहो समुप्पइओ ॥ ३६ ॥ पेच्छह महासमुई, संघट्टन्तवीइ-कल्लोलं। गाहसहस्सावासं, आगासं चेव वित्थिण्णं ॥ ३७ ॥ संपत्तो चिय दटुं, दीवं वररयणसंपयसमिद्धं । ओइण्णो सिरिकण्ठो, तत्थ निविट्ठो मणिसिलासु ॥ ३८ ॥ वजिन्दनील मरगय-पूसमणी-पउमरायकन्तीए । लक्खिज्जइ बहुवण्णो, दीवो किरणोणुवालीए ॥ ३९॥ नाणाविहतरुणतरुब्भवेहि कुसुमेहि पञ्चवण्णेहिं । भसलीकओ व नजइ, निज्झर-गिरिविविहकुहरेहिं ॥ ४० ॥ पण्डुच्छुबाडपउरो, सहावसंपन्नदीहियाकलिओ । वरकमलकेसरारुण-लवङ्गगन्धेण सुसुयन्धो ॥ ४१॥ अह पत्तो विहरन्तो, दीवं सबायरेण सिरिकण्ठो । पेच्छइ य वाणरगणे, सबत्तो माणुसायारे ॥ ४२ ।। घेत्तण ताण सबं, करणिज्जं खाण-पाणमाईयं । कारावियं च सिग्धं, कीलणहेउं नरिन्देण ॥ ४३ ।। तत्पश्चात् तीव्र स्नेहसे युक्त कीर्तिधवलने श्रीकण्ठसे कहा कि तुम वैताट्यमें मत जाओ, क्योंकि वहाँ तुम्हारे बहुत शत्रु हैं। (२८) यहाँ लवणसागरमें मणि एवं रत्नोंकी किरणोंसे देदीप्यमान तथा कल्पवृक्ष सरीखे वृक्षोंसे छाया हुआ एक द्वीप है। (२६) भीम एवं अतिभीमके ऊपर अनुग्रह करके देवोंने पहले हो इस द्वीप में बसने की अनुज्ञा दी थी। (३०) संध्यावेल, मनःप्रह्लाद, सुवेल, कनक, हरि, सु-उपवन, जलाध्याय, हंस, अर्द्धस्वर्ग, उत्कट, विकट, रोधन, अमल, कान्त, स्फुरद्रन, तोयबलीश, अलंघ, नभ, भानु, क्षेम आदि मनको सदा आनन्द देनेवाले तथा देवोंके लिए क्रीड़ा करनेयोग्य दूसरे द्वीप भी समीप हैं। (३१-३३) इनके पश्चिमोत्तर दिशामें तीन सौ योजन पर लवणसागरके बीच वानरद्वीप नामका एक द्वीप है। (३४) वहाँ पर बड़े बड़े गुणोंसे समृद्ध एक नगर बसाकर अपने सगे-सम्बन्धियोंके साथ तुम देवताओंकी लीलाका भी तिरस्कार करनेवाले आरामके साथ रहो । (३५) चैत्र मासके प्रथम दिनमें अपने परिवारके साथ तथा रथ, हाथी एवं घोड़ोंसे युक्त हो श्रीकण्ठ निकला और वानर द्वीपकी ओर उड्यन किया । (३६) टकरानेसे ऊपर उठती हुई लहरोंसे युक्त तथा हजारों बड़े बड़े जल-जन्तुओंसे व्याप्त महासागर और चारों ओर फैला हुआ आकाश उसने देखा । (३७) श्रीकंठ अन्तन्तः द्वीपके पास पहुँचा। उत्तम रत्न तथा सम्पत्तियोंसे समृद्ध उस द्वीपको देखकर वह नीचे उतरा और मनःशिला पर जा बैठा । (३८) हीरे, इन्द्रनीलमणि, मरकत, सूर्य-कान्तमणि एवं पद्मरागमणिको कान्तिवाले किरणोंकी पंक्तिओंसे विविध वर्णवाला दीखता था। (३९) नानाविध तरुण वृक्षोंके ऊपर उगे हुए पाँच प्रकारके रंगवाले पुष्पोंसे तथा झरने व पर्वतकी विविध गुफाओंसे वह मानो भ्रमररूप हो ऐसा मालूम होता था। (४०) वह सफेद गन्नेकी बाड़ोंसे व्याप्त था, कुदरती तौर पर बनी हुई बावड़ियोंसे युक्त था तथा उत्तम कमलोंके केसर व अरुण लवंगको गन्धसे वह सुगन्धित था । (४१) अत्यन्त सन्तोषके साथ द्वीपमें भ्रमण करते हुए श्रीकण्ठने सब प्रकारसे मानव आकारवाले वानरोंको देखा । (४२) राजाने क्रीड़ार्थ उन सबको पकड़ा और शीघ्र ही खानपान आदि कार्य उनसे करवाया । (४३) वानरके समान चंचल स्वभाववाले वे नाचते थे, बजाते थे तथा १. रमणिज-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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