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________________ ६. १३ ] ६. रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो वानरवंश: १ ॥ एसो ते परिकहिओ, रक्खसवंसो भए समासेणं । एत्तो सुणाहि नरवइ ! वाणरवंसस्स उप्पत्ती ॥ वेडून वरिन्दे मेहपुरं दक्खिणाऍ सेढीए । विज्जाहरसामन्तो, अहइन्दो अन्थि विक्खाओ ॥ २ ॥ भज्जा य सिरिमई से, सिरिकण्ठो तीऍ गब्भसंभूओ । पुत्तो महागुणधरो, देवकुमारोवमसिरीओ ॥ ३ ॥ देवि त्ति नाम कन्ना; सिरिकण्ठसहोयरा विसालच्छी । सयलम्मि नीवलोए, रूवपडागा महिलियाणं ॥ ४ ॥ ५ ॥ ६॥ ७ ॥ अह रयणपुराहिवई, "वीरो पुप्फुत्तरो महाराया । तस्स गुणेहि सरिच्छो, पुत्तो पउमुत्तरो नाम ॥ सिरिकण्ठनिययबहिणी, मग्गइ पुप्फुत्तरो सुयनिमित्तं । न य तेण तस्स दिन्ना, दिन्ना सा कित्तिधवलस्स ॥ वित्तो चिय वीवाहो, दोण्ह वि विहिणा महासमुदएणं । सोऊण तन्निमित्तं रुट्टो पुप्फुत्तरो राया ॥ अह अन्नया कयाई, सिरिकण्ठो वन्दणाऍ देवगिरिं । गन्तूण पडिनियत्तो, पेच्छद कन्नं वरुज्जाणे ॥ ८ ॥ ती विसो कुमारो, दिट्टो कुसुमाउहो व रूवेण । दोण्हं पि समणुरागो, तक्खणमेत्तेण उप्पन्नो ॥ ९॥ मुणिऊण तीऍ भावं, हरिसवसुभिन्नदेह रोमचो । अवगूहिऊण कन्नं, उप्पइओ नहयलं तुरिओ ॥ १० ॥ पुप्फुत्तरो नरिन्दो, सिट्टे चेडीहि नियंयुयासमग्गो । सन्नद्धबद्धकवओ, मग्गेण पहाविओ त बहुसरथ नी कुसलो, सिरिकण्ठो नाणिऊण परमत्थं । लङ्कापुरिं पविट्टो, सरणं संभासिओ सिणेह, रक्खसवइणा पहद्रुमणसेणं । सिद्धं च जहावत्तं राक्षस एवं वानरोंकी प्रव्रज्या १. धीरो — प्रत्य० । २. नियमुयाहरणे मु० । ፡ चिय कित्तिधवलस्स ॥ कन्नाहरणाइयं सबं ॥ ६. हे राजन्! मैंने तुम्हें राक्षसवशंके बारेमें संक्षेपसे यह सब कहा, अब वानरवंशकी उत्पत्तिके बारेमें सुनो । ( १ ) वैताढ्य पर्वतकी दक्षिण शाखामें मेघपुर नामका नगर है । वहाँ अहमिन्द्र नामका एक विख्यात विद्याधर राजा रहता था । (२) उनकी भार्या श्रीमती थी । उसके गर्भ से उत्पन्न महागुणी तथा देवोंके कुमारोंकीसी कान्तिवाला श्रीकण्ठ नामका पुत्र था । ( ३ ) श्रीकण्ठकी बहनका नाम देवी था । उसकी आँखें बड़ो बड़ी थीं तथा समस्त जीवलोकमें महिलाओंके रूपके लिये वह पताकातुल्य अर्थात् सर्वश्रेष्ठ रूपवती थी । ( ४ ) रत्नपुर नामक नगरका अधिपति पुष्पोत्तर नामका एक वीर महाराजा था। गुगोंसे अपने हो जैसा उसका पद्मोत्तर नामका पुत्र था । (५) पुष्पोत्तरने अपने पुत्रके लिये श्रीकण्ठ से उसकी बहन देवोकी मँगनी की, किंतु उसने उसे न देकर कीर्तिधवलको दी । ( ६ ) दोनांका विधिपूर्वक विवाह बड़े समारोहके साथ सम्पन्न हुआ । यह सुनकर पुष्पोत्तर राजा रुष्ट हो गया । ( ७ ) Jain Education International ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ एक बार श्रीकण्ठ वन्दनार्थं देवगिरि जाकर लौट रहा था रास्ते में एक उत्तम उद्यानमें उसने एक कन्या देखी। (८) उसने भी कामदेव के समान सुन्दर रूपवाले उस कुमारको देखा। उसी समय दोनोंके बीच प्रेम उत्पन्न हुआ । ( ९ ) उस कन्या के भावको जानकर आनन्दसे रोमांचित शरीरवाला वह कुमार कन्याको आलिंगित करके एकदम आकाश में उड़ गया । (१०) दासियों द्वारा अपनी लड़कीका अपहरण सुनकर पुष्पोत्तर राजाने सैन्यसे तैयार होकर तथा स्वयं कवच पहनकर जिस मार्गसे वह गया था, उस मार्ग से उसका पीछा किया । ( ११ ) अनेकविध शास्त्र एवं नीतिमें कुशल (१२) मनमें प्रसन्न श्रीकण्ठने अपने कल्याण को जानकर लंकापुरीमें प्रवेश किया तथा कीर्तिधवलकी शरण में गया । राक्षसपतिने स्नेहपूर्वक उसे बुलाया । उसने कन्यापहरण आदि जो कुछ हुआ था वह यथावत् कह सुनाया । (१३) उस For Private & Personal Use Only ५७ www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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