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________________ पउमचरियं । [५.२५८एसो ते परिकहिओ, रक्खसक्सस्स उब्भवो तुज्झ । सेणिय! सुणाहि एत्तो, वंसे पुरिसा समासेण ॥२५८॥ भीमप्पहस्स पुत्तो, पढमो पूयारहो समुप्पन्नो । पबइओ खायनसो, रज्जे ठविऊण नियंभाणुं ॥२५९॥ जियभाणुस्स वि पुत्तो, संपरिकित्ती विसालवच्छयलो । सुग्गीवो तस्स सुओ, तस्स वि य भवे हरिग्गीवो ॥२६॥ सिरिगीवो सुमुहो वि य, सुबन्तो अमियवेगनामो य । आइच्चगइकुमारो, इन्दप्पभ इन्दमेहो य ॥२६॥ बाओ मयारिदमणो, पहिओ इन्दइ सुभाणुधम्मो य । एत्तो सुरारि तिजडो, महणो अङ्गारओ य रवी ॥२६२॥ चक्कार वज्जमज्झो, पमोय वरसीहवाहणो सूरो । चाउण्डरावणो वि य, भीमो भयवाह रिउमहणो ॥२६३॥ निबाणभत्तिमन्तो उग्गसिरी अरुहभत्तिमन्तो य । तह य पवणुत्तरगई, उत्तम अणिलो य चण्डो य ॥२६४॥ लङ्कासोग मऊहो, महबाहु मणोरमो य रवितेओ। महगइ महकन्तजसो, अरिसंतासो य रायाणो ॥२६५॥ चन्दवयणो य महरवो, मेहज्झाणो तहेव गहखोभो । नक्खत्तदमणमाई, एवं विज्जाहरा नेया ॥ २६६ ॥ कोडीण सयसहस्सा, एवं विज्जाहरा बलसमिद्धा । लङ्कापुरीएँ सामी, वोलीणा दीहकालेणं ॥२६७॥ पुत्ताण निययरजं, दाऊण परंपराएँ निक्खन्ता । देवत्तं सिवसोक्खं, केइ ससत्तीऍ संपत्ता ॥२६८॥ एवं गएसु नियमा, महयापुरिसेसु पउमगब्भाए । मेहप्पभस्स पुत्तो, कित्तीधवलो समुप्पन्नो ॥२६९॥ विज्जाहरेहि समय, आणाइस्सरियविविहगुणपुण्णो । लङ्कापुरीऍ रजं, कुणइ जहिच्छं सुरिन्दो व ॥२७॥ एवं भवन्तरकएण तवोबलेणं, पावन्ति देव-मणएसु महन्तसोक्खं । केएत्थ दड्डनीसेसकसाय-मोहा, सिद्धा भवन्ति विमला-ऽमलपङ्कमुक्का ॥२७॥ ॥ इति पउमचरिए रक्खसवंसाहियारे पञ्चमहेसओ समत्तो।। संक्षेपसे मैं तुम्हें कहता हूँ, वह तुम सुनो । (२५८) भीमप्रभका प्रथम पुत्र पूजाई उत्पन्न हुआ। विख्यात कीर्तिवाले उसने राज्यपर जितभानुको प्रतिष्ठित करके दीक्षा ली। (२५९) जितभानुका विशाल वक्षस्थलवाला संपरिकीर्ति नामका पुत्र था। उसका पुत्र सुग्रीव था और उसका भी पुत्र हरिग्रीव था। (२६०) उसके पश्चात् क्रमशः श्रीग्रीव, सुमुख, सुव्रत, अमितबेग, आदित्यवेग, इन्द्रप्रभ, इन्द्रमेघ, मृगारिदमन, प्रहित, इन्द्रजित्, सुभानुधर्म, सुरारि, त्रिजट, मथन, अंगारक, रवि, चक्रार, वनमध्य, प्रमोद, वरसिंहवाहन, सूर, चामुण्ड, रावण, भीम, भयावह, रिपुमथन, निर्वाणभक्तिमान, उग्रश्री, अर्हद्भक्तिमान् , पवन, उत्तरगति, उत्तम, अनिल, चण्ड, लंकाशोक, मयूख, महाबाहु, मनोरम, रवितेज, बृहद्गति, बृहत्कान्तयश, अरिसंत्रास, चन्द्रवदन, महारव, मेघध्वान, ग्रहक्षोभ, नक्षत्रदमन आदि विद्याधर हुए । (२६१-२६६) इस प्रकार बलसे समृद्ध शतसहस्र (लाखों ) करोड़ विद्याधर लंकापुरीके राजा हुए। उनको स्वर्गवासी हुए दीर्घकाल व्यतीत हुआ है। (२६७) वे क्रमसे अपने-अपने पुत्रों को राजगद्दी देकर प्रव्रज्या अंगीकार करते थे। अपनी शक्तिके अनुसार उनमेंसे कुछ ने शिवसुख (मोक्ष) तो दूसरोंने देवत्व प्राप्त किया । (२६८) इस प्रकार इन महापुरुषोंके जानेपर पद्माके गर्भसे मेघप्रभको कीर्तिधवल नामका पुत्र हुआ। (२६९). आज्ञा, ऐश्वर्य, आदि विविध गुणोंसे पूर्ण बह विद्याधरोंके साथ लंकापुरीमें सुरेन्द्रको भाँति राज्य करता था । (२७०) इस प्रकार दूसरे जन्ममें किये गये तपोबलसे जीव देव व मनुष्यलोकमें बड़ा भारी सुख प्राप्त करते हैं और यहाँपर कोई कोई तो सम्पूर्ण कषाय एवं मोहका नाश करके कर्मरूपी मलसे मुक्त तथा पवित्र होकर सिद्ध भी होते हैं। । पद्मचरितके राक्षसवंश नामक अधिकारमें पाँचवाँ उद्देश्य समाप्त हुआ। १. जिणभागु-प्रत्य० । २. जिणभाणु-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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