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५.२५७ ]
५. रक्खसर्वसाहियारो
अमरपुरसन्निभाई, सनामसरिसाइँ पट्टणवराई। रक्खससुएहि सिग्छ, कयाइँ बहुसन्निवेसाई ॥२४५॥ संझायाल१सुवेलो२, मणपल्हाओ३ मणोहरो४ चेव । हंसद्दीवो५ हरिजो६, धन्नो७ कणओ८ समुद्दोय९ ॥२४६॥ नामेण अद्धसम्गो१०. एव निवेसा महागुणसमिद्धा । उप्पाइया समत्था, महामहारक्खससुएहि ॥२४७॥ आवत्तवियडमेहा, उक्कड फुडदुग्गहा महाभागा । तवणायवलियरयणा, कया य रविरक्खससुएहिं ॥२४८॥ वरभवण-तुगतोरण-नाणाविहमणिमऊहपज्जलिया। सोहन्ति सन्निवेसा, रक्खसपुत्ताण कीलणया ॥२४९॥ राया उ देवरक्खो, बीओ पुण भाणुरक्खसनरिन्दो । घेत्तूण पवरदिक्खं, अबाबाह समणुपत्तो ॥२५०॥
राक्षसवंश:एवं तु महावंसे, वोलीणे मेहवाहणो जाओ । रक्खससुओ महप्पा, मणवेगाए समुप्पन्नो ॥२५१॥ तस्स य नामेण इमो, रक्खसवंसो जयम्मि विक्खाओ। तस्स वि आइच्चगई, महन्तकित्ती य उप्पन्नो ॥२५२॥ सुप्पभदेवीतणया, रवि-चन्दसमप्पभा कुमारवरा । समणो होऊण चिरं, पिया य तेसिं गओ सम्गं ॥२५३॥ नामेण मयणपउमा, आइञ्चगइस्स वल्लभा भज्जा । आउणहनामधेया, महिला उ महन्तकित्तिस्स ॥२५४॥ आइच्चगइस्स सुओ, भीमरहो नाम नरवई जाओ । तस्साऽऽसि महिलियाणं, सहस्समेगं वरवहणं ॥२५५॥ अट्टत्तरं सयं चिय, पुत्ताणं अमररूवसरिसाणं । घेत्तृण य पबज्ज, भीमरहो पत्थिओ सिद्धिं ॥२५६॥ रक्खन्ति रक्खसा खलु, दीवा पुण्णेण रक्खिया जेण । तेणं चिय खयराणं, रक्खसनामं कयं लोए ॥२५७॥
सन्निवेशोंको स्थापना की । (२४५) सन्ध्याकाल, सुवेल, मनःप्रह्लाद, मनोहर, हंसद्वीप, हरिज, धन्य, कनक, समुद्र, अर्द्धस्वर्गबड़े बड़े गुणोंसे समृद्ध इन समस्त सन्निवेशोंकी स्थापना महाराक्षसके महान् पुत्रोंने की। (२४६-४७) आवर्तविकट नामक मेघसे युक्त, विस्तीर्ण, विशद एवं शत्रुओंके द्वारा दुर्ग्रह तथा किनारोंसे टकरानेवाली पानीकी लहरोंमें बहकर आए हुए रनोंसे व्याप्त द्वीपोंमें रविराक्षसके पुत्रोंने भी सन्निवेश बसाए। (२४८) उत्तम भवन, उन्नत तोरण और नानाविध मणियोंकी किरणों से देदीप्यमान राक्षसपुत्रों द्वारा निर्मित वे सन्निवेश शोभित हो रहे थे । (२४९) देवराक्षस राजा तथा दूसरा भानुराक्षस नरेन्द्रइन दोनों ने उत्तम दीक्षा अंगीकार करके अव्याबाध सुख प्राप्त किया । (२५०) राक्षसवंश
इस प्रकार अनेक पीढ़ियोंके व्यतीत होने पर इस महावंशमें मेघवाहन हुआ। मनोवेगा नामकी पत्नीसे उसे महात्मा राक्षस नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। (२५१) उसके नामसे यह राक्षसवंश जगत्में प्रसिद्ध हुआ। उसे भी सुप्रभा नामकी पत्नीसे सूर्य एवं चन्द्र जैसी कान्तिवाले आदित्यगति तथा महत्कीर्ति नामक दो पुत्र हुए। उनके पिता चिरकाल पर्यत श्रमण धर्म पालकर स्वर्गमें गये। (२५२-२५३) आदित्यगतिको प्रिय पत्नीका नाम मदनपद्मा और महत्कीर्तिकी भार्याका नाम आयुर्नख था । (२५५) आदित्यगतिका पुत्र भीमरथ नामका राजा हुआ। उसकी उत्तम पत्नी रूपसे एक हजार स्त्रियाँ थीं तथा देवताओंके रूपके समान सुरूप १०८ पुत्र थे। प्रव्रज्या ग्रहण करके भीमरथने सिद्धिकी ओर प्रयाण किया । (२५५-२५६) पुण्य द्वारा परिरक्षित राक्षस द्वीपोंकी रक्षा करते थे, अतः लोक में खेचर (विद्याधर) राक्षसके नामसे प्रसिद्ध हुए । (२५७)
हे श्रेणिक! राक्षसवंशके उद्भवके वारेमें यह सब मैंने तुमसे कहा। अब इस वंशमें जो पुरुष हुए हैं उनके बारेमें
१. मूलमें 'तवणायवलियरयणा' पाठ है। इसका अर्थ बहुत खींचतान करने पर भी बराबर नहीं बैठता। रविषेणने, मूलमें जो भी पाठ रहा हो, उसका अनुवाद 'तटतोयावलीरमद्वीपाः' किया है और वह सन्दर्भ के साथ बरावर बैठता भी है, अतः उसीका अनुवाद यहाँ दिया गया है।
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