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पउमचरियं
[५. २३०उट्टियमेत्तो सि तुम, सई सोऊण हट्टतुट्ठमणो । अह घोसिउ पयत्तो, निणस्स थुइमङ्गलविहाणं ॥२३॥ कालं काऊण तओ, जक्खो जाओ महिडिसंपन्नो । अवरविदेहे पेच्छइ, कश्चणनयरे मुणिवरस्स ॥२३॥ उवसम्ग कीरन्त, वारेऊण य रिऊ ससत्तीए । रक्खइ मुणिवरदेह, जक्खो पुण्णं समज्जेइ ॥२३२॥ तत्तो चुओ समाणो, तडियङ्गयखेयरस्स वेयड्वे । सिरिषभदेवीतणओ, नाओ उइओ वरकुमारो ॥२३३॥ तो बन्दणाएँ जन्तं. अह चारणविक्कम पलोएउ । विज्जाहराहिराया, कुणइ नियाणं तओ मूढो ॥२३४॥ काऊण तवमुयार, ईसाणे सुरवरो स्थ होऊणं । घणवाहणस्स पुत्तों, जाओ सि तुम महारक्खो ॥२३५॥ सुरभोगेसुन तित्ती. जो सि तुम न य गओ सुचिरकालं । कह परितुट्ठो होहिसि, दियहाणं सोलसद्धणं १ ॥२३६॥ सोऊण वयणमेयं. गओ विसायं तओ महारक्खो । आसन्नमरणभावो, भणइ नरिन्दो इमं वयणं ॥२३७॥ विसयविसमोहिएणं, महिलानेहाणुरागरत्तेणं । कालो च्चिय न य नाओ, केत्तियमेत्तो वि वोलीणो ॥२३८॥ न य गेहम्मि पलिते, कूवो खम्मइ सुतूरमाणेहिं । धाहाविए ण दम्मइ, आसो च्चिय तक्खणं चेव ॥२३९॥ अभिसिञ्चिऊण रज्जे, पुतं चिय देवरक्खसं राया। तह भाणुरक्खसं पि य, जुवरज्जे ठविय निक्खन्तो ॥२४॥ वोसिरियसबसङ्गो, चइऊणं चउविहं च आहारं । आराहणाएँ कालं, काऊण सुरुत्तमो नाओ ॥२४॥ अह किन्नरगीयपुरे, सिरिधरविज्जाहरस्स वरदुहिया । रइवेगनामधेया, सा महिला देवरक्खस्स ॥२४२॥ गन्धवगीयनयरे, सुरसन्निभरायनामधेयस्स । जाया गन्धारिसुया, गन्धवा भाणुरक्खस्स ॥२४३॥ दस देवरक्खससुया, जाया छ च्चेव वरकुमारीओ। तह भाणुरक्खसस्स वि, तावइया चेव उप्पन्ना ॥२४४॥
करने लगे। (२३०) वहाँ से मर करके अपरविदेहमें कंचन नगरमें तुम ऋद्धिसम्पन्न यक्ष हुए। वहाँ तुमने एक मुनिवरको देखा । (२३१) अपने सामर्थ्यसे उपसर्ग करनेवाले शत्रुओंका निवारण करके और इस प्रकार मुनिवरकी देहकी रक्षा करके उस यक्षने पुण्योपार्जन किया । (२३२) वहाँसे च्युत होनेपर वैताढ्यपर्वतमें तडिदंगद नामक खेचरकी भार्या श्रीप्रभादेवीके उदित नामक पुत्र रूपसे तुम उत्पन्न हुए । (२३३) वन्दनार्थ जाते हुए चामर-विक्रमको देखकर मूढ़ विद्याधर राजाने निदान (दृढ़ संकल्प) किया। (२३५) उग्र तप करनेके पश्चात् ईशान देवलोकमें वह देव हुआ। वहाँसे च्युत होकर तुम घनवाइनके पुत्र महाराक्षस हुए हो। (२३५) देवताओंके योग्य दीर्घकालीन भोगोंसे भी यदि तुम्हें तृप्ति न हुई तो फिर आठ दिनोंमें तुम्हें परितुष्टि कैसे हो सकती है ?' (२३६) यह कथन सुनकर महाराक्षसको विषाद हुआ। मरण समीप है यह जानकर राजा यों कहने लगा-'विषयरूपी विषसे बेहोश तथा स्त्रियोंके स्नेहानुरागमें आसक्त मैं यह नहीं जान पाया कि कितना काल व्यतीत हुआ है। (२३७-३८) घरमें आग लगनेपर जल्दी-जल्दी कूआँ नहीं खोदा जा सकता। दौड़ते हुए घोड़ेको तत्क्षण काबूमें नहीं लाया जा सकता।' (२३९) इस प्रकार कहकर अपने पुत्र देवराक्षसको राज्यपर अभिषिक्त करके तथा भानुराक्षसको युवराजपदपर स्थापित करके उसने दीक्षा अंगीकार की। (२४०) सब प्रकारकी आसक्तियोंका तथा चार प्रकारके आहारका' परित्याग करके आराधनापूर्वक मरकर वह देवरूपसे उत्पन्न हुआ। (२४१)
इधर किन्नरगीतपुर नामक नगरमें श्रीधर विद्याधरकी रतिवेगा नामकी जो उत्तम पुत्री थी वह देवराक्षसकी पत्नी हुई । (२४२) गन्धर्वगीवनगरमें सुरसन्निभराज नामक राजाकी गान्धारी नामकी पत्नीसे उत्पन्न मन्धर्वा नामकी कुमारीके साथ भानुराक्षसका विवाह हुआ । (२४३) देवराक्षसके दस पुत्र तथा छः उत्तम कन्याएँ हुई। भानुराक्षसकी भी इतनी ही संतानें हुई । (२५४) इन राक्षसपुत्रोंने जल्दी ही अपने नाम से युक्त तथा अलकापुरीके जैसे उत्तम नगरोंसे व्याप्त अनेक
१. अहवामरविकर्म-मु.। २. खन्यते सुत्वरमाणैः। ३. पूरकृते। ४. सुरसभिभनामधेयरायस्स-प्रत्यः ।
५. भशन, पान खादिम और स्वादिम-आहारके ये चार प्रकार हैं। भशन-रोटी बादि भोजन, पान-पानी, दूध आदि पेय दार्थ; खादिम-फल, मेवा भादि और स्वादिम-सुपारी, लौंग आदि मुखवास ।
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