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५. २२९ ]
५. रक्खसवं साहियारो
महाराक्षसस्य वैराग्यं पूर्वभवश्च -
जो तत्थ सो महप्पा, लङ्कापुरिसामिओ महारक्खो । निक्कण्टयमणुकूलं, भुञ्जइ रज्जं महाभोगं ॥ २१७॥ सो अन्नया कयाई, जुवईजणपेरिमिओ वरुज्जाणे । रमिऊण वाविसलिले, पेच्छइ भमरं पउममझे ॥२१८॥ नह पउमगन्धलुद्धो, नट्टो च्चिय महुयरो अविन्नाणो । तह जुवइवयणकमले, आसत्तो चैव नट्टो हं ॥ २१९॥ सुबुद्धिणा विहूणा, नियमेणं महुयरा विणस्सन्ति । कुसलो वि जं विणट्टो, अहयं तं मोहदुल्ललियं ॥ २२०॥ गण से इमो, जइ एवं महुयरो खयं पत्तो । पढमं चेव विणट्टो, पश्चिन्दियवसगओ जो हं ॥ २२१॥ भोत्तूण विसयसोक्खं, पुरिसो धम्मेण विरहिओ सन्तो । परिभमइ चाउरन्तं पुणरुत्तं दीहसंसारं ॥२२२॥ नाव य विरत्तभावो, अच्छह लङ्काहिवो परिगणन्तो । ताव य सङ्घपरिवुडो, पत्तो सुयसायरो समणो ॥ २२३॥ तस - पाण- जन्तुरहिए, उज्जाणे फामुए सिलावट्टे । तत्थेव सन्निविट्टो, समणेहि समं कर्यानिओगो ॥ २२४ ॥ उज्जाणपालपट्टि, सिट्टे समणागमे तओ राया । गन्तूण पययमणसो, पणमइ सुयसायरं साहुं ॥ २२५॥ सेसं च ममणसङ्घ, जहक्कमं पणमिऊण उवविट्टो । पुच्छइ भवपरियहं निययं राया मुणिवरिन्दं ॥२२६॥ अह साहिउं पयत्तो, समणो छउमत्थनाणविसरणं । भरहेत्थ पोयणपुरे, वसइ नरो हियकरो नामं ॥ २२७॥ भज्जा य माहवी से, पुत्तो पोइंकरो तुमं तेसिं । निणवरधम्मुप्पन्नो, हेमरहो नरवई तत्थ ॥ २२८॥ सो अन्नया कयाई, चेइयपूयं रइत्तु भावेणं । पडुपडह - सङ्खसहियं जयसद्दं निणवरे कुणइ ॥ २२९ ॥
महाराक्षसका पूर्ववृत्त एवं प्रव्रज्या लेना
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उधर जो लंकानगरीका स्वामी महात्मा महाराक्षस था वह निष्कण्टक अनुकूल तथा बड़ी-बड़ी भोग सामग्रियों से समृद्ध ऐसे राज्यका उपभोग करने लगा । (२१७) युवतियोंसे घिरा हुआ वह एक एक सुन्दर उद्यानमें बावड़ी के जलमें क्रीड़ा कर रहा था। उस समय उसने कमलके बीच एक भ्रमर देखा । (२१८) उसे देखकर वह सोचने लगा कि कमलकी गन्धमें लुब्ध अबूझ भौंरा जिस प्रकार नष्ट होता है उसी प्रकार युवतियोंके मुखरूपी कमलमें आसक्त मैं भी मानों नष्ट ही हुआ हूँ । (२२९) शुचि ( विवेकशील ) बुद्धिका अभाव होनेसे भरे नियमसे विनष्ट होते हैं. जब कि मैं तो कुशल होनेपर भी मोहको दुष्ट आदतसे नष्ट ही हुआ हूँ । (२२०) यदि यह भौंरा गन्ध एवं रसमें गृद्ध होनेके कारण मृत्यु प्राप्त करता है तं पाँचों इन्द्रियोंके वशीभूत मैं पहले ही नष्ट हो चुका हूँ । (२२१) धर्म से बिरहित पुरुष चार गतिरूपी चार सीमाओंवाले दीर्घ मार में पुनः पुनः परिभ्रमण करता रहता । ( २२२)
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इस प्रकार वैराग्य भावनाका विचार लंकापति कर रहा था कि अपने संघके साथ श्रुतसागर नामके मुनि वहाँ पधारे । (२२३) उस उद्यान में स एवं स्थावर जन्तुओंसे रहित अचित्त शिलापट्टपर वह मुनि नियम धारण करके साधुओं के साथ बैठे । (२२४) श्रमण साधुओं का आगमन उद्यानपालकों द्वारा कहे जानेपर उस ओर प्रयत्नशील मनवाले राजाने जाकर श्रुतसागर मुनिका वन्दन किया । ( २२५ शेष श्रमणसंघको भी यथाक्रम वन्दन करके राजा बैठा और मुनिवर से अपने संसार परिभ्रमणके बारे में पूछने लग ( २२६) श्रमणमुनिने अपने छद्मस्थज्ञानसे जो कुछ अवगत हो सकता था उसे जानकर कहा कि
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'इस भरतक्षेत्र के पोतनपुर नामक नगर में हितकर नामका एक आदमी रहता था । (२२७) उसकी भार्याका नाम माधवी था। उनके तुम प्रियंकर नामके पुत्र थे । वहाँपर जिनवर के धममें अनुरागी हेमरथ नामका राजा था । (२२८) वह एक दिन भावपूर्वक चैत्यपूजा करनेके लिये गया और बड़े-बड़े ढोल व शंखको ध्वनिके साथ जिनवरकी जय बुलाने लगा । (२२६) तुम अभी उठे ही थे कि आवाज सुनते ही भानन्दविभोर होकर जिनेश्वरकी स्तुति व मंगलविधिको उद्घोषणा १. परिवृतः । २. करेत - प्रत्य० ।
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