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पउमचरियं
[५. १७१मन्तीहि ताण सिटुं, एयाई कारियाइँ भरहेणं । तुम्हेत्थ रक्खणत्थं, किंचि उवायं लहुं कुणह ॥१७१॥ दण्डरयणेण घायं, दाउं गङ्गानईऍ मज्झम्मि । सयरसुएण उ ताहे, परिखेवो पबयस्स कओ ॥१७२॥ दठ्ठण य तं विवर, नागिन्दो कोहजलणपज्जलिओ। सबै वि सयरपुत्ते, तक्खणमेत्तं डहइ रुट्टो ॥१७३॥ न य दड्डे 'दोण्णि जणे, ताणं मज्झट्ठिए कुमाराणं । काऊणं अणुकम्पं, जिणवरधम्मप्पभावेणं ॥१७४॥ दहण मरणमेयं, सयरसुयाणं समत्तखन्धारो । भइरहि-भीमेण सम, साएयपुरि समणुपत्तो ॥१७५॥ सयरस्स निवेयन्ता, सुयमरणं भीम-भगिरही सहसा । नयसत्थपण्डिएहिं, निवारिया ते अमच्चेहिं ॥१७६॥ ते तत्थ पवरमन्ती, गन्तूण य पणमिऊण चक्कहरं । दिन्नासणोवविट्ठा, कयसन्ना जंपिउ पयत्ता ॥१७७॥ इह पेच्छ नरवइ ! तुम, लोयस्स अणिच्चया असारत्तं । को एत्थ कुणइ सोयं, जो पुरिसो पण्डिओ लोए ? ॥१७८॥ आसि पुरा चक्कहरो, भरहो नामेण तुज्झ समविभवो । छक्खण्डा जेण इमा, दासि व बसीकया पुहई ॥१७९॥ तस्साऽऽसि पढमपुत्तो, आइच्चजसो ति नाम विक्खाओ । जस्स य नामपसिद्धो, वंसो इह बट्टए लोए ॥१८॥ एवं एत्थ नरवई, वंसे बल-रिद्धि-कित्तिसंपन्ने । काऊण महारजं, वोलीणा दीहकालेणं ॥१८१॥ अच्छन्तु ताव मणुया, जे वि य ते सुरवई महिड्डीया । विभवेण पजलेउ, विज्झाणा हुयवहं चेव ॥१८२॥ जे वि य जिणवरवसहा, समत्थतेलोकनमियपयवीढा । आउरक्खयम्मि पत्ते, ते वि य मुश्चन्ति ससरीरं ॥१८३॥ जह एक्कम्मि तरुवरे, वसिऊणं पक्खिणो पभायम्मि । वच्चन्ति दस दिसाओ, एक्ककुडम्बम्मि तह जीवा ॥१८४॥ इन्दधणफेणसविणय-विज्जलयाकुसुमबुब्बुयसरिच्छा । इट्टनणसंपओगा, विभवा देहा य जीवाणं ॥१५॥
सोसन्ति जे वि उदहि, मेरुं भञ्जन्ति मुट्टिपहरेहिं । कालेण ते वि पुरिसा, कयन्तवयणं चिय पविट्ठा ॥१८६॥ किया। १७० मंत्रियोंने उनसे कहा कि ये चैत्यभवन भरतने बनवाये हैं। इनकी रक्षा के लिये तुम कोई उपाय जल्दी होकरो।(१७१) इस पर गंगा नदीके बीच दण्डरत्नसे प्रहार करके सगरपुत्रोंने पर्वतके चारों ओर परिखा तैयार की । (१७२) इस छिद्रको देखकर रुष्ट नागेन्द्रने क्रोधरूपी अग्निसे प्रज्वलित होकर सभी सगरपुत्रोंको तत्क्षण भस्म कर डाला । (१७३) जिनवरके धर्मके प्रभावसे अनुकम्पा करके उन कुमारोंमें से दो कुमारोंको भस्मसात् न किया। (१७४) सगरके पुत्रोंकी ऐसी मृत्यु देखकर भगीरथ एवं भीम के साथ समस्त सैन्य अयोध्या लौट आया । (१७५) बिना सममे-यूझे ही सगरको पुत्रमरणका समाचार निवेदित करनेवाले भीम व भगीरथको नीति एवं शास्त्र में विद्वान् अमात्योंने रोका । (१७६) वे बुद्धिशाली मंत्री वहाँ गए और चक्रवर्तीको प्रणाम करके दिये हुए श्रासनपर जा बैठे। संज्ञा करनेपर वे कहने लगे कि-'हे राजन् ! इस संसारकी अनित्यता तथा असारता देखकर यहाँ पर ऐसा कौन पण्डित पुरुष है जो शोक करेगा ? (१७७-१७८) पहले आपके ही समान वैभव गले भरत नामके चक्रवर्ती थे। उन्होंने षट्खण्डात्मक इस पृथ्वीको दासीकी भाँति वशमें कर रखा था। (१७२) उसका प्रथम पुत्र आदित्ययशाके नामसे विख्यात हुआ, जिसके नामसे प्रसिद्ध आदित्य वंश इस लोकमें चल रहा है। (१८०) बल, ऋद्धि एवं कीर्तिसे सम्पन्न इस वंशमें अनेक राजा दीर्घकालतक राज्य करके स्वर्गवासी हुए। (१८१) मनुष्यकी बात तो जाने दें, जो अत्यन्त ऋद्धिवाले तथा वैभवसे देदीप्यमान इन्द्र होते हैं, वे भी बुझी हुई भागकी भाँति ठंडे होजाते हैं। (१८२) समस्त त्रैलोक्य जिनके पैरोंमें नमस्कार करता है ऐसे जिनवर भी आयुकर्मका क्षय होने पर अपने शरीरको मोद देते हैं। (१८३) जिस प्रकार एक वृक्षपर बसे हुए पक्षी प्रातःकाल होनेपर दसों दिशाओंमें उड़ जाते हैं उसी प्रकार एक कुटम्बमें रहे हुए जीव भी चले जाते हैं। (१८४) लोगोंके वैभव, देह और इष्ट जनके साथके संयोग इन्द्रधनुष, फेन, स्वप्न, बिजली, फूल और बुलबुलेकी तरह क्षणिक एवं विनश्वर होते हैं । (१८५) जो समुद्रको सोखने में समर्थ थे और मुकेके प्रहारसे मेरुपर्वतको भी तोड़ सकते थे वे महासमर्थ पुरुष भी समय आनेपर कालके मुँह में प्रविष्ट हो गये। (१८६) इस संसारमें सभी बलशालियोंकी अपेक्षा अधिक बलशाली मृत्यु ही है, जिसने कि चक्रवर्ती आदि अनन्त जीवोंका यहाँपर विनाश
१. दो त्रि जणे-प्रत्य। २. हुयवहे जेम्व-प्रत्य० ।
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