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५. रक्खसवंसाहियारो
एक जिणवरसिट्ट, धम्म काऊण पवरभत्तीए। एवंविहा मणुस्सा, होऊण सिवं परमुवन्ति ॥१५८॥ जे पुण धम्मविरहिया, जीवा बहुपावकम्मपडिबद्धा । ते चउगइवित्थिण्णे, भमन्ति संसारकन्तारे ॥१५९॥ एवं कालसभावं, सुणिऊणं महइपुरिससंबन्धं । घणवाहणो विरागं, तक्खणमेत्तेण संपत्तो ॥१६॥ पश्चिन्दियविसयविमोहिएण कन्तापसत्तचित्तेणं । धम्मो चिय नाहिकओ, हा! कद वश्चिओ अप्पा ॥१६१॥ इन्दधणुसुमिणसरिसे, विज्जुलयाचवलचञ्चले जीए । को नाम करेज रई, जो होज सचेयणो पुरिसो ? ॥१६२॥ ता उज्झिऊण रज, कन्ता पुत्ता धणं च धणं च.। गेण्हामि परमबन्धु', पारत्तबिइज्जयं धर्म ॥१६३॥ अहिसिञ्चिऊण रज्जे, सो हु महारक्खसं पढमपुत्तं । उम्मुक्कसबसङ्गो, पबज्जमुवागओ धीरो ॥१६४॥ लङ्कापुरीऍ सामी, पणवाहणनन्दणो पहियकित्ती। विज्जाहराण राया, भुञ्जइ रजं सुरवरी व ॥१६५॥ भज्जा से विमलाभा, तीए पुत्ता कमेण उप्पन्ना । पढमो य देवरक्खो, उअही आइच्चरक्खो य॥१६६॥ अनियनिणिन्दो य तओ, धम्मपहं दरिसिऊण लोयस्स । सम्मेयसेलसिहरे, सिवमयलमणुत्तरं पत्तो ॥१६७॥ सगरपुत्राणामष्टापदयात्रा नागेन्द्रण दहनं चसगरो वि चक्कवट्टी, चउसट्ठिसहस्सजुवइकयविहवो । भुञ्जइ एगच्छत्त, सयलसमत्थं इमं भरहं ॥१६८॥ अमरिन्दरूवसरिसा, सट्ठिसहस्सा सुयाण उप्पन्ना। अट्टावयम्मि सेले, वन्दणहेउं समणुपत्ता ॥१६९॥ वन्दणविहाणपूयं, कमेण काऊण सिद्धपडिमाणं । अह ते कुमारसीहा, चेइयभवणे संसन्ति ॥१७०॥
जिनवरके द्वारा उपदिष्ट एकमात्र धर्मका परमभक्तिके साथ आचरण करनेसे इन पुरुषोंके जैसे महान् होकर लोग उत्तम शिवपद रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं। (१५८) जो जीव धर्मरहित तथा बहुत प्रकारके पाप-कर्मोंसे जकड़े हुए होते हैं वे चतुर्गति रूप विस्तीर्ण संसार-अटवीमें भटकते रहते हैं। (१५९) इस प्रकार काल-स्वभाव तथा महापुरुषोंके बारेमें सुनकर घनवाहनको उसी समय वैराग्य हो आया कि--'पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें मूढ़ तथा स्त्रीमें संसक्त चित्तवाले मैंने धर्मका आचरण ही नहीं किया। अफसोस है कि मैंने इस तरह अपनी आत्माको ठगा है । (१६०-१६१) कौन ऐसा सचेतन पुरुष है जो इन्द्रधनुष और स्वप्नके समान क्षणिक तथा बिजलीके विलासके समान चंचल जीवनमें आसक्ति रखेगा? (१६२) अतः राज्य, पत्नी, पुत्र, धन एवं धान्यका परित्याग करके दूसरे जन्ममें परम बन्धुरूप धर्मको अंगीकार करता हूँ।' (१६३) इस प्रकार सोचकर उस धीर धनवाहनने अपने प्रथमपुत्र महाराक्षसको राजगद्दी पर अभिषिक्त करके सर्व संगोंसे विमुक्त हो दीक्षा ली। (१६४)
लंकापुरीका स्वामी, विद्याधरोंका राजा तथा विस्तृत कीर्तिवाला घनवाहनका पुत्र देवकी भाँति राज्यका उपभोग करने लगा। १६५) उसकी भार्याका नाम विमलाभा था। उससे उसे क्रमसे देवरक्ष, उदधि तथा आदित्यरक्ष पुत्र हुए । (१६६) उधर अजित जिनेन्द्रने भी लोगोंको धर्ममार्ग दिखलाकर सम्मेत-शिखरके ऊपर कल्याणकारी, निर्मल एवं अनुत्तर मोक्षपद प्राप्त किया। (१६७)
सगरपुत्रोंकी अष्टापद यात्रा और नागेन्द्र द्वारा दहन
चौसठ हजार युवतियोंकी समृद्धिवाला सगर चक्रवर्ती भी पूर्ण प्रभुत्वयुक्त इस सम्म भरतक्षेत्रका उपभोग करने लगा। (१६८) उसके देवेन्द्रके समान रूपवाले साठ हजार पुत्र थे। बे एकबार अष्टापद पर्वतके ऊपर वन्दनके हेतु आये। (१६९) क्रमशः सिद्धप्रतिमाओंके दर्शन एवं पूजाविधि करके कुमारोंमें सिंह जैसे उन्होंने चैत्यभवनमें प्रवेश
१. परमभत्तीए-प्रत्य.। २. पइसरन्ति-मु.।
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