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५.२०१]
५. रक्खसर्वसाहियारो बलियाण जीवलोए, सबाण वि होइ अइबलो मच्चू । निहणं जेण अणन्ता, चक्कहराई इहं नीया ।।१८७॥ एवं मच्चवसगए, ससुरा-ऽसुर-माणुसम्मि लोयम्मि । उम्मुक्ककम्मकलुसा, नवरं चिय सुत्थिया सिद्धा ॥१८८॥ उत्तमकुलुब्भवाणं, एयाणं गुणसहस्सनिलयाणं । चरिए सुमरिज्जन्ते, कह चेव न फुट्टए हिययं ? ॥१८९॥ जह ते कालेण निवा, इह मणुयभवे खयं समणुपत्ता । तह अम्हे वि य सबे, वच्चीहामो निरुत्तेणं ॥१९॥ अन्नं पि सुणसु सामिय! दीणमुहा भीम-भगिरही दो वि । एत्थाऽऽगयाण पेच्छसि, नूणं सेसा खयं पत्ता ॥१९॥ ते पेच्छिऊण राया, तं चिय सोऊण निययसुयमरणं । घणसोयसलियङ्गो, मुच्छावसवेम्भलो पडिओ ॥१९२॥ चन्दणजलोल्लियङ्गो, पडिबुद्धो पुत्तमरणदुक्खत्तो । अह विलविउं पयत्तो, नयणेसु य मुक्सलिलोहो ॥१९३॥ हा ! सुकुमालसरीरा, पुत्ता मह सुरकुमारसमरूवा । केण विया अयण्डे, अविराहियदुट्टवेरीण ? ॥१९४॥ हा! गुणसहस्सनिलया, हा! उत्तमरूव सोमससिवयणा । हा! निग्धिणेण विहिणा. बहिया मे निरणकम्पेणं ॥१९५॥ किं तुज्झ नत्थि पुत्ता, पावविही ! बालया हिययइट्टा । जेण मह मारसि इहं, सुयाण सष्टुिं सहस्साई ॥१९६॥ एयाणि य अन्नाणि य, चक्कहरो विलविऊण बहुयाई । पडिबुद्धो भणइ तओ, वयणाई जायसंवेगो ॥१९७॥ हा! कट्ट विसयविमोहिएण सुयणेहरज्जुबद्धणं । धम्मो मए न चिण्णो, तरुणत्ते मन्दभग्गेणं ॥१९८॥ किं मज्झ वसुमईए?, नवहि निहीहि व रयणसहिएहिं ! । जं दुल्लहलद्धाणं, पुत्ताण मुहं न पेच्छामि ॥१९९।। धन्ना ते सप्पुरिसा, भरहाई जे महिं पयहिऊणं । निविण्णकामभोगा, निस्सङ्गा चेव पवइया ॥२०॥
अह सो जण्हविपुत्तं, अहिसिञ्चेऊण भगिरहिं रज्जे । भीमरहेण समाणं, पबइओ जिणवरसयासे ॥२०१॥ किया है। (१८७) इस प्रकार मृत्युके वशीभूत देव, दानव एवं मनुष्यों से युक्त इस संसारमें कर्मरूपी मैलसे उन्मुक्त सिद्ध ही सम्यकरूपसे स्थित हैं। (१८८) उत्तम कुलोंमें उत्पन्न तथा हजारों गुणोंके धामरूप इनका चरित सुननेपर भला किसका हृदय विदीर्ण न होगा? (१८९) इस मानव-भवमें जिस प्रकार वे सब राजा काल आनेपर विनष्ट हो गये उसी प्रकार हम सब भी निश्चय ही क्षीण हो जायँगे । (१९०) हे स्वामी ! दूसरी भी बात आप सुनिये। आप यहाँपर आये हुए दीन मुँहवाले भीम
और भगीरथको देख रहे हैं। इनके अतिरिक्त दूसरे सब मृत्युको प्राप्त हुए है.' (१९१) उन्हें देखकर तथा अपने पत्रों के मरणका समाचार सुनकर तीव्र शोकरूपी काँटा जिसके शरीरमें चुभ रहा है ऐसा वह सगर चक्रवर्ती मूच् के कारण व्याकुल होकर नीचे गिर पड़ा। (१६२) चन्दनके जलसे शरीरका सिंचन करनेपर प्रतिबुद्ध होकर पुत्रोंके मरणसे दुःखात उसकी आँखोंसे आँसुओंका प्रवाह बहने लगा, वह विलाप करते हुए कहने लगा कि
सुकुमार शरीरवाले, देवकुमारोंके समान रूपवाले तथा दुष्ट वैरियोंके लिये भी आराधना करने योग्य हे मेरे पुत्रों ! असमयमें ही तुम्हारा किसने वध किया है ? (१९३-९४) हजारों गुणोंके धाम-रूप, उत्तम-रूप तथा चन्द्रके समान सौम्य मखवाले मेरे पत्रों का निर्दय विधिने बेरहम होकर वध किया है। (१९५) हे पापी विधि ! क्या तुझे हृदयसे प्रेम करने जैसे पत्र एवं बालक नहीं है, जिससे मेरे साठ हजार पुत्रोंको तूने मार डाला ?' (१९६) ऐसा तथा इस तरहका दूसरा बहुत कुछ विलाप करनेके पश्चात् होश में आया हुआ सगर चक्रवर्ती वैराग्य उत्पन्न होनेपर पुनः इस तरह कहने लगा (१९७)
अफसोस है कि विषयों में आसक्त तथा पुत्रोंकी स्नेहरूपी रस्सीसे जकड़े हुए मन्दभागी मैंने जवानीकी अवस्था में धर्मका आचरण नहीं किया । (१९८) कठिनाईसे प्राप्त पुत्रोंका मुख यदि मैं नहीं देख सकता तो फिर इस पृथ्वी तथा रनोंसे युक्त इन नौ निधियोंसे मुझे क्या ? (१९९) भरत आदि सत्पुरुष धन्य हैं, जिन्होंने पृथ्वीका त्याग करके कामभोगोंसे विरक्त हो निःसंग भावसे दीक्षा अंगीकार की थी।' (२००) इस प्रकार सोचकर सगरने भगीरथको राज्यपर अभिषिक्त किया और स्वयं भीमरथके साथ जिनवरके पास दीक्षा अंगीकार की। (२०१) घोर तपश्चर्या करनेके पश्चात्
१. मूविशविह्वलः।
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