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________________ अहिंसा की कसौटी की बातें सुनो। कहीं इधर-उधर जाने-आने से और सुनने-सुनाने से धर्म भागता नहीं है । अपने धर्म के साथ-साथ दूसरों के धर्म को भी मालूम करो। फिर देखो कि सब धर्मों का निचोड़ एक ही है; अर्थात्, अपनी आत्मा के प्रतिकूल जो बातें मालूम होती हों वही करने और जिन बातों से तुम्हारे मन में पीड़ा उत्पन्न होती हो; जैसे – गाली देना, अपमान करना, नुकसान पहुँचाना, कष्ट पहुँचाना, आदि वे तुम दूसरों के लिए भी कभी न करो । यही सबसे बड़ा धर्म है और सबसे बड़ी अहिंसा है; अहिंसा में धर्म या अधर्म को परखने की सच्ची कसौटी है । जो व्यक्ति के 'अहम्' भाव को अन्दर से निकाल कर प्राणीमात्र में बिखेर देता है, व्यक्ति के भीतर सीमित स्नेह की संकीर्णवृत्ति को विशालता और विपुलता प्रदान करता हुआ चलता है और अन्त में जगत् के कोनेकोने में उसे फैला देता है, वही सच्चा धर्म है । स्वार्थ या कांटेदार घेरा ही इस कसौटी में बाधक मगर अहिंसा की यह कसौटी उस क्रूर, पापी, लुटेरे या हत्यारे के ध्यान में क्यों नहीं आती ? संसार में आज नित नये संघर्षों का जन्म हो रहा है, वर्गगत, जातिगत, परिवारगत, धर्मसम्प्रदायगत एवं भाषादिगत संघर्ष दैत्य की तरह भयानक हो कर परेशान और भयभीत कर रहे हैं, मानव जाति को; इन्हें अहिंसा की बात क्यों नहीं सूझती ? वे इस पूर्वोक्त कसौटी को अपने पर लगा कर क्यों नहीं परखते ? इन सबके मूल में एक ही कारण है और वह है -- क्षुद्र स्वार्थी का घेरा । यह कांटेदार घेरा इतना भयानक है कि इसके कारण व्यक्ति अपनी वासना के लिए खाने-पीने, भोग विलास और ऐशआराम के लिए दूसरों को बर्बाद कर रहा है, नेस्तनाबूद कर रहा है । क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए भले ही दूसरों के हित कुचल दिये जाएँ, चाहे दूसरों का जीवन नष्ट हो जाए, किन्तु अपना घर भर जाना चाहिए और अपनी जिंदगी को पूरा आराम मिलना चाहिए; इस प्रकार की भावना से मनुष्य अपने अन्दर बन्द हो गया है । इसके कारण अहिंसा को धर्म मानते हुए भी वह स्वार्थ पूर्ति के समय उसे भुला देता है । मनुष्य आज अपने स्वार्थों का कैदी बना हुआ है । अपनी इच्छा, प्रतिष्ठा, सुख और भोग की भावना से इस प्रकार घिर गया है कि दूसरी कोई श्रेष्ठ कल्पना ही उसके मस्तिष्क में प्रवेश नहीं पा रही है । वह जब भी सोचता है, अपने सम्बन्ध में । जिधर भी उसकी दृष्टि जाती है, स्वयं के स्वार्थ को ही देखता है । जब कभी मन में भूख-प्यास के संकल्प उठते हैं, तो उसे अपनी भूख ही भूख मालूम पड़ती है । दूसरे की भूख-प्यास की कोई अनुभूति ही नहीं होती । बात यह है कि अपनी वेदना और पीड़ाओं के सिवाय उसे और कुछ ध्यान में ही नहीं आता है । अपने कष्ट के सिवाय वह और किसी के कष्ट को अनुभव नहीं कर पा रहा है । इस क्षुद्र भावना से मनुष्य अपने अन्दर बन्द हो गया है, फलतः उसे नहीं मालूम होता कि दूसरों पर कैसी गुजर रही ? यह विकट और भयंकर घेराबन्दी है, यह स्वार्थ मोह और अज्ञान है; जिससे आज मनुष्य का हृदय चारों ओर से घिर गया है । Jain Education International ८१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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