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________________ ७८ अहिंसा-दर्शन नहीं सकते। फिर भी मनुष्य जब परिस्थितियों से घिर जाय या कोई कठिनाई महसूस हो, तब भगवान् महावीर की अहिंसा की यह व्याख्या उसका पथ-प्रदर्शन करने को तैयार है-- अहिंसा की व्याख्या संसारभर के प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझो यही अहिंसा की व्याख्या है, यही अहिंसा का भाष्य और महाभाष्य है, और यही अहिसा की महान् कसौटी है। जिस दिन और जिस घड़ी, व्यक्ति अपने आप में जो जीने का अधिकार ले कर बैठा है, वही जीने का अधिकार सहजभाव से दूसरों के लिए भी देगा, उसके अन्दर दूसरों के जीवन की परवाह करने की मानवता जागेगी, दूसरों की जिन्दगी को अपनी जिन्दगी के समान देखेगा और संसार के सब प्राणी उसकी भावना में उसकी अपनी आत्मा के समान दिखने लगेंगे और सारे संसार को वह समभाव से देखने लगेगा-ज्ञान और विवेक की दिव्यदृष्टि से देखेगा कि यह सब प्राणी उसके ही समान हैं, उसमें और दूसरे में कोई मौलिक अन्तर नहीं है, जो चीज उसे प्रिय है वही दूसरों को भी प्रिय है, बस तभी समझा जा सकता है कि उसके अन्दर अहिंसा है। जब तक कोई यह समझता है-'मेरे लगी सो दिल में और दूसरों के लगी सो दीवार में, यानी चोट लगने पर जैसा दर्द उसे होता है वैसा ही दूसरों को होता है तब यह समझ नहीं आई, तब तक अहिंसा नहीं आ सकती। जब उसके मन को उसकी भावना को चोट लगती है और वह दर्द से घबराने लगता है तो निश्चित ही उसे समझना चाहिए कि वैसी ही पीड़ा दूसरे को होती है। इस प्रकार दूसरों के दर्द की अनुभूति जब व्यक्ति के हृदय में अपने दर्द की तरह होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अहिंसा भगवती उसके भीतर आ विराजी है। इस सम्बन्ध में भगवान् महावीर ने कहा है-- "सब जीव जीना चाहते हैं । कोई मरना नहीं चाहता। सभी को अपने जीवन के प्रति आदर व आकांक्षा है। सभी अपनी सुख-सुविधा के लिए सतत प्रयत्नशील हैं, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं और अपनी सत्ता के लिए जूझ रहे हैं । अतः जैसा तू है, वैसे ही सब हैं । इसीलिए मैंने प्राणिवध अर्थात् हिंसा का त्याग किया है और दूसरों को सताना छोड़ा है। यदि स्वयं को सताया जाना पसन्द होता तो दूसरों को सताना न छोड़ते। यदि स्वयं को मारा जाना पसन्द होता तो मारना न छोड़ते । परन्तु सभी प्राणियों के जीवन की एक ही धारा है ।"५ -दशवकालिक सूत्र ४६ ४ सव्वभूयप्पभूअस्स, सम्भं भूयाइं पासाओ। पिहिआसवस्स दंतस्स, पावकम्मं न बधई ।। ५ सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिडं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ -दशवकालिक ६।११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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