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अहिंसा की कसौटी
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नहीं; शरीर के ही दर्शन आप कर रहे हैं । बाहर में जो जाति-पांति के झगड़े हैं, दायरे हैं, आप अभी तक उन्हीं में बन्द हैं । आत्मा न भंगी है, न चमार है, और न काला है, न गोरा है । यदि शरीर को देखना है तो शरीर सबका ही भंगी है । ब्राह्मण का शरीर भंगी है, वैश्य का शरीर भी भंगी है। उसके शरीर में भी वही दुनियाभर का मलमूत्र भरा है, जो भंगी के शरीर में है। क्या आप दावा कर सकते हैं कि भंगी के शरीर में कूड़ा भरा है और आपके शरीर में सोना भरा है। भंगी के शरीर में मलमूत्र है और आपके शरीर में कुछ और है ? शरीर की दृष्टि से सब चाण्डाल है, ब्राह्मण भी, वैश्य भी और क्षत्रिय भी । आप भी और हम भी । शरीर के अन्दर छुपे हुए उस परम चैतन्य-आत्मा का स्पर्श जब तक नहीं होता, तब तक द्वैतभावना नहीं मिट सकती। जब आत्मा की सही परख हो जायेगी, तभी आत्म-दृष्टि बन सकेगी । आत्मा-आत्मा में कोई भेद नहीं है । आत्मा में परमात्मा का वास है वस्तुत: जो आत्मा है वही परमात्मा है। ये अहिंसा परब्रह्म के उदात्त बिचार, यह विशाल दृष्टिकोण जब तक आपके हृदय में जागृत नहीं होता, तब तक आप परमात्मतत्त्व की ओर नहीं बढ़ सकते । मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जब मनुष्य परस्पर में भेद की दीवारें खड़ी कर देता है, अपने मन में इतने क्षद्र घेरे बना लेता है, उसकी दृष्टि जातीयता के छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाती है तो वह अपने ही समान मानवजाति के एक सदस्य की सेवा और सहायता नहीं कर सकता, भला वह पशु-पक्षियों की सेवा और करुणा की क्या बात करेगा ? एक मनुष्य पर जब आप दया नहीं कर सकते, उसकी पीड़ा पर आपका हृदय नहीं पिघल सकता, तो हम क्या आशा करें कि पशुओं के क्रंदन पर, कष्ट पर आप नेमिनाथ बन कर पसीज उठेगे ?
भारतीय संस्कृति की विराट् भावनाएँ, उच्च कल्पनाएँ यहाँ तक पहुंची हैं कि यहाँ सांप को भी दूध पिलाया जाता है। संसारभर में भारत ही एक ऐसा देश मिलेगा, जहाँ पशु-पक्षियों के त्यौहार मनाये जाते हैं। नागपंचमी आई तो सांप को दूध पिलाया गया; गोपाष्टमी आई तो गाय और बछड़े की पूजा की गई। 'सीतला' (राजस्थान का त्यौहार) आई तो विचार गर्दभराज को पूजा-प्रतिष्ठा मिल गई । यहाँ की दया और करुणा का स्वर कितना मुखर है कि जो सांप दूध पी कर भी जहर उगलता है, मनुष्य को काटने के लिए तैयार रहता है, जो मनुष्य के प्राणों का शत्रु है, उसे भी दूध पिलाया जाता है, शत्रु को भी मित्र की तरह पूजा जाता है।
निष्कर्ष यह है कि जो प्रेम अपने शरीर, परिवार आदि के प्रति है, वही प्रेम जब दूसरों के संकट के समय सहायक होगा, समग्र मानवजाति और उससे भी ऊपर उठ कर सारे पशु-पक्षी जगत् तक समष्टि के रूप में फैलता जाएगा, सर्वत्र करुणा की धारा बहाएगा, तभी अहिंसा भगवती के विराट रूप का दर्शन होगा।
अतः जहाँ पर दया, करुणा, और सेवा मानवता की पवित्र भावनाओं का अहिंसा भगवती के रूप में विकास हुआ है, यहाँ उलझनें या शुद्ध स्वार्थों के बंधन टिक
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