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________________ ७६ अहिंसा-दर्शन नारे लग रहे हैं, 'अपना प्रान्त अलग बनाओ, तभी प्रान्त की उन्नति होगी।' वस्तुतः देखा जाए तो इन तथाकथित नेताओं को प्रान्त की उन्नति की उतनी चिन्ता नहीं है, जितनी स्वयं की उन्नति की चिन्ता है। प्रान्त का भला कुछ कर सकेंगे या नहीं, यह तो दूर की बात है, पर अपना भला तो कर ही लेंगे। जनता की सेवा हो न हो, किन्तु अपनेराम की तो अच्छी सेवा हो ही जायेगी। सेवा का मेवा भी मिल ही जायेगा। प्रान्त और देश में दूध-दही की नदी तो दूर, पानी की नहर या नाला भी बने या न बने, पर अपने घर में तो संपत्ति की गंगा आ ही जायेगी। आज के ये सब ऐसे स्वार्थ और क्षुद्र विचार हैं, जिनसे देश के खण्ड-खण्ड हो रहे हैं, मानवता के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हैं । जातिवाद, प्रान्तवाद, संप्रदायवाद वे कैचिया है, जिनसे इन्सानों के दिल काटे जाते हैं, मानवता के टुकड़े किये जाते हैं और अपने पद-प्रतिष्ठा और सुख-ऐश्वर्य के प्रलोभन में मानवजाति का सर्वनाश किया जाता है। जो इन सब विकल्पों से परे मानव का 'मानव' के रूप में दर्शन करता है, उसे ही अपना परिवार एवं कुटुम्ब समझता है, वह व्यापकचेतना का स्वामी नर के रूप में नारायण का अवतार है। कल्पना कीजिए, आप किसी रास्ते से गुजर रहे हैं। आपने वहाँ किसी बच्चे को देखा, जो घायल है, वेदना से कराह रहा है। आपका हृदय द्रवित हो गया और आपके हाथ ज्यों ही उसे उठाने को आगे बढ़ते हैं, आवाज आती है, यह तो 'चण्डाल' है, भंगी है; इसका क्या अर्थ हुआ? आपमें अहिंसा और करुणा की एक क्षीण ज्योति जली तो थी, पर जातिवाद की हवा के एक हल्के से झोंके से वह सहसा बुझ गई । आप करुणा को भूल कर जातिवाद के चक्कर में आ जाते हैं कि यह तो भंगी का लड़का है, भला इसे मैं कैसे छू सकता हूँ? चमार का लड़का है, इसे कैसे उठायें ? इस क्षुद्र भावना की गन्दी धारा में बह जाते हैं आप, जहाँ प्रेम का पवित्र जल नहीं, किन्तु जातिवाद का गन्दा पानी बहता है। ऐसे समय में आपकी यह भावना होनी चाहिए कि जो वेदना से कराह रहा है, घायल है, वह आत्मा है। शरीर का जन्म चाहे जहाँ हुआ हो, चाहे जिस घर में हुआ हो, आत्मा का जन्म तो कहीं नहीं होता । आत्मा तो आत्मा है। वह ब्राह्मण के यहाँ हो तो क्या, शूद्र के यहाँ हो तो क्या ? वह काले रंग की चादर के अन्दर है तो क्या, और गोरे पिण्ड के अन्दर है तो क्या ? हम आत्मा की सेवा करते हैं, शरीर की सेवा नहीं करते हैं। यदि शरीर की सेवा करते हैं तो जब कोई मर जाता है तो प्रिय से प्रिय सम्बन्धी को जला कर खाक क्यों कर देते हैं ? शरीर की ही सेवा मुख्य है, तो शरीर तो तब भी है। इस पर से सिद्ध होता है कि शरीर की सेवा नहीं, सेवा आत्मा की होती है। और आत्मा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, भंगी, चमार तथा काले-गोरे आदि के भेदों से सर्वथा परे हैं । आत्मा की सेवा करनी है, तो फिर शरीर के सम्बन्ध में यह क्यों देखा जाता है कि यह भंगी का शरीर है, या चमार का ? यदि भंगी और चमार की दृष्टि है, तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि आपने अब तक आत्मा को ठीक तरह से परखा ही नहीं, आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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