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________________ अहिंसा की कसौटी या कुछ.दिन अहिंसा का व्रत पालन कर लेना, अहिंसा और करुणा की मुख्य भूमिका नहीं है। विश्व-समाज के प्रति अहिंसा की भावना जब तक नहीं जगे, व्यक्ति व्यक्ति में समानता और सह-जीवन के संस्कार जब तक नहीं जन्में, तब तक अहिंसक-समाजरचना की बात केवल विचारों में रहेगी। समाज में अहिंसा और प्रेम के भाव जगाने के लिए व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा। अपने पराये के ये क्षुद्र घेरे, स्वार्थ और इच्छाओं के ये कठघरे तोड़ डालने होंगे। विश्व की हर आत्मा के सुख-दुःख के साथ ऐक्यानुभूति का आदर्श जीवन में लाना होगा। भारतीय संस्कृति का यही स्वर सदासदा से गूंजता रहा है अयं निजः परोवेति गणना लघु-चेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ हृदय की गहराई से निकले हुए ये परमात्म-चेतना के व्यापक स्वर हैं । जहाँ परमात्मतत्त्व छिपा बैठा है, आत्मा के उस निर्मल उत्स से वाणी का यह निर्झर फूटा है । यह मेरा है, यह तेरा है, इस प्रकार अपने और पराये के रूप में जो संसार के प्राणियों का बंटवारा करता चला जाता है, उसके मन की धारा बहुत ही सीमित है, क्षुद्र है । ऐसी क्षुद्र मनोवृत्ति का मानवसमाज के किसी भी क्षेत्र में अपना उचित दायित्व निभा सकेगा, अपने परिवार का दायित्त्व भी ठीक से वहन करेगा, जो जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई है उसे ठीक तरह पूरी करेगा-इसमें शंका है। कभी कोई अतिथि दरवाजे पर आए और वह उसका खुशी से स्वागत करने के लिए खड़ा हो जाए तथा आदर और प्रसन्नतापूर्वक अतिथि का उचित स्वागत करे--यह आशा उन मनुष्यों से नहीं की जा सकती, जो 'अपने पराये' के दायरे में बँधे हुए हैं। किस समय उनकी क्या मनोवृत्ति रहती है, किस स्थिति में उनका कौन अपना होता है और कौन पराया होता है-यह सिर्फ उनके तुच्छ स्वार्थों पर निर्भर रहता है और कुछ नहीं। इसके विपरीत जिनके मन के क्षुद्र घेरे टूट गए हैं, जो स्वार्थ की कैद से छूट गए हैं, उनका मन विराट रहता है। विश्व के मुक्त आनन्द और अभ्युदय की निर्मल धारा उनके हृदय में बहती रहती है। विश्वात्मा के सुख-दुःख के साथ उनके सुख-दु:ख बँधे रहते हैं। किसी प्राणी को तड़पते देख कर उनकी आत्मा द्रवित हो उठती है, फलस्वरूप किसी के दुःख को देख कर सहसा उसे दूर करने के लिए वे सक्रिय हो उठते हैं । पराया जैसा कभी कोई उनका होता ही नहीं। सभी कुछ अपना होता है । सब घर अपने घर! सब समाज अपने समाज! अपने परिवार के साथ उनका जो स्नेह और सौहार्द है, वही पड़ोस के साथ, वही मोहल्ले वालों के साथ और वही गाँव, प्रान्त और राष्ट्र वालों के साथ। यह व्यापक स्नेह और सौहार्द उनका निश्छल एवं निर्मल होता है । उसमें वैयक्तिक स्वार्थ की कोई गन्ध नहीं होती। आज की तरह उनका प्रान्तीय स्नेह राजनीतिक स्वार्थ साधने का हथियार नहीं होता है। आज सब ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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