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अहिंसा-दर्शन
अपने स्वार्थ और सुख के घेरे में बन्द हो कर ही आप यह वैराग्य की बात करते हैं, तो फिर सोचिए कि जब आप अपने परिवार में ही व्यापक नहीं बन पा रहे हैं, मातापिता तक हृदय को अभी तक स्पर्श नहीं कर सके हैं। उसके लिए भी कुछ त्याग और बलिदान नहीं कर सकते हैं, भाई-बहनों के अन्तस्तल को नहीं छू सकते हैं, तब समाज के हृदय तक पहुंचने की तो बात ही क्या करें ? परिवार की छोटी-सी चारदीवारी के भीतर भी आप व्यापक नहीं बने हैं, तो वह विश्वव्यापी अहिंसारूपी परमात्मतत्त्व आपमें कैसे जागृत होगा ? अपने सुख को माता और भाई-बहनों में भी आप नहीं बाँट सकते, तो समाज को बाँटने की बात कैसे सोची जा सकती है ?
विचार कीजिए-घर में आपका पुत्र-पौत्रादि का परिवार है, आपका सहोदर भाई भी है, उसका भी परिवार है, पत्नी है, बाल-बच्चे हैं-लड़के-लड़कियां हैं। अब आपके मन में अपने लिए अलग बात है, अपने भाई के लिए अलग बात है। अपनी पत्नी के लिए आपकी मनोवृत्ति अलग ढंग की है और भाई की पत्नी के लिए अलग ढंग की। लड़के-लड़कियों के लिए भी एक भिन्न ही प्रकार की मनोवृत्ति काम कर रही है। इस प्रकार घर में एक परिवार होते हुए भी मन की सृष्टि में अलग-अलग टुकड़े हैं, सबके लिए अलग-अलग खाने हैं, और अलग-अलग दृष्टियाँ हैं। एक ही रक्त के परिवार में इन्सान जब इस प्रकार खण्ड-खण्ड हो कर चलता है, क्षुद्र घेरों में बंट कर चलता है, तब उससे समाज और राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यापकता की क्या आशा की जा सकती है ? और अहिंसारूपी परब्रह्म की कैसे वह उपासना कर सकता है ?
__मैं विचार करता हूँ कि मनुष्य के मन में जो ईश्वर की खोज चल रही है, परमात्मा का अनुसन्धान हो रहा है, क्या वह सिर्फ एक धोखा है ? वंचनामात्र है ? हजार-लाखों मालाएँ जपने मात्र से ईश्वर के दर्शन हो जायेंगे ? व्रत और उपवास आदि का नाटक रचने से परमात्म-तत्त्व जागृत हो जायेगा.? जब तक यह अलग-अलग सोचने का दृष्टिकोण नहीं मिटता, मन के ये खण्ड-खण्ड सम्पूर्ण मन के रूप में परिवर्तित नहीं होते, अपने समान ही दूसरों को समझने की वृत्ति जागृत नहीं होती, अपने चैतन्यदेवता के समान ही दूसरे चैतन्य-देवता का महत्त्व नहीं समझा जाता, अपने समान ही उसका सम्मान नहीं किया जाता और अपने प्राप्त सुख को इधर-उधर बाँटने का भाव नहीं जगता, यथार्थ रूप से अहिंसा भगवती की उपासना नहीं होती, तब तक आत्मा-परमात्मा नहीं बन सकता। जब आप सोचेंगे कि जो अभाव मुझे सता रहे हैं, वे ही दूसरों को भी पीड़ा दे रहे हैं । जो सुख-सुविधाएँ मुझे अपेक्षित हैं, वे ही दूसरों को भी अपेक्षित हैं। जो संवेदन, अनुभूति स्वयं के लिए की जाती है, उसी तीव्रता से जब वे दूसरों के लिए की जायेंगी, तब आपके अन्तर में विश्वात्मभाव प्रकट होगा; तभी अहिंसा भगवती की विराट् झाँकी आपको प्रत्यक्ष प्रतीत होगी। अहिंसा भगवती का विराट रूप : विश्वात्मानुभूति
मैं कह चुका हूँ इधर-उधर के दो-चार प्राणी बचा लेना या दो-चार घण्टा
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