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________________ अहिंसा की कसौटी अखण्ड आनन्द का स्रोत है, वह अभी दबा हुआ है, और जो प्रकाश है, वह अभी संक्षिप्त हो गया है, सीमित हो गया है, और धुंधला हो गया है। इस प्रकार दो बातें हमारे सामने आती हैं। एक यह कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकता है, और दूसरी यह कि परमात्मा सर्वव्यापक है । जैन-दृष्टिकोण के साथ इसका समन्वय करें तो मात्र कुछ शब्दों के जोड़-तोड़ के सिवा और विशेष अन्तर नहीं दिखाई देगा। हमारे पास समन्वयबुद्धि है, अनेकान्तदृष्टि है और वह तोड़ना नहीं, जोड़ना सिखाती है-सत्य को खण्डित करना नहीं, किन्तु पूर्ण करना बताती है । सर्वव्यापक-शब्द को हम समन्वयबुद्धि से देखें, तो इसका अर्थ होगा, आत्मा अपने स्वार्थों से निकल कर आसपास की जनता के, समाज और देश के, अन्ततः विश्व के प्राणियों के प्रति जितनी दूर तक दया, करुणा और सद्भावना की धारा बहाता चला जाता है, प्रेम और समर्पण की वृत्ति जितनी दूर तक जगाता चला जाता है, उतना ही वह व्यापक बनता जाता है। हम आन्तरिक जगत् में जितने व्यापक बनते जायेंगे, अहिंसा की हमारी ये सवृत्तियाँ जितनी दूर तक विस्तार पाती जाएंगी और उनमें जन-हित की सीमा जितनी व्यापक होती जाएगी, उतना ही ईश्वरीय अंश हमारे अन्दर प्रकट होता जाएगा। जितना-जितना ईश्वरत्व जागृत होगा, उतना-उतना ही आत्मा परमात्मा के रूप में परिणत होता चला जायेगा। अहिंसा का हार्द : सुख को सर्वव्यापी बनाना अहिंसारूपी परब्रह्म परमात्मा आपके अन्दर कितना जागृत हुआ है, इसको नापने का 'बेरोमीटर' भी आपके पास है। उस 'बेरोमीटर' से आप स्वयं को जान पाएँगे कि अभी आप कितने व्यापक बने हैं ? कल्पना कीजिए, आपके सामने आपका परिवार है, उस परिवार में बूढ़े मां-बाप हैं, भाई-बहन हैं, और दूसरे सगे सम्बन्धी भी हैं, कोई रोगी भी है, कोई पीड़ित भी है। कोई ऐसा भी है, जो न कुछ कमा सकता है और न कुछ श्रम कर सकता है। ऐसे परिवार का उत्तरदायित्व आपके ऊपर है। इस स्थिति में आपके मन में कल्पना उठती हैं कि "सब लोग मेरी कमाई खाते हैं, सबके सब बेकार पड़े हैं, अनाज के दुश्मन बन रहे हैं, काम कुछ नहीं करते । बूढ़े माँ-बाप अब तक परमात्मा की शरण में नहीं जा रहे हैं, जब बीमार पड़ते हैं, तो उन्हें दबा चाहिए। और इस विचार के बाद आप उन्हें उपदेश दें कि अब क्या धरा है संसार में ? छोड़ो संसार को । बहुत दिन तक खाया पीया । कब तक ऐसे रहोगे ? आखिर तो मरना ही है एक दिन ।" यह उपदेश तो आपका काफी ऊँचा है, बहुत पहुँची हुई बात है आपकी, पर आपका दृष्टिकोण कहाँ तक पहुँचा है, यह भी तो देखिए । वास्तव में आप यह उपदेश किसी सहज वैराग्य से प्रेरित होकर दे रहे हैं, या अपने सुख का और सुख के साधनों का जो बँटवारा हो रहा है, उसे रोकने के लिए दे रहे हैं ? जो समय और श्रम आपको उनकी सेवा में लगाना पड़ रहा है उससे ऊब कर ही आप यह वैराग्य की बात कर रहे हैं ? यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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