________________
७२
अहिंसा-दर्शन
जिज्ञासा का कारण पूछा, तो वह बोला--"सतीशचन्द्र विद्याभूषण जैसे धनाढ्य विद्वान् की माँ के हाथों में हीरे और मोती के स्वर्ण-आभूषण की जगह पीतल के आभूषण देख कर मैं चकित हूँ कि यह क्या है, क्यों है ? आपके हाथों में यह शोभा नहीं देते ।"
माता ने गम्भीरता से कहा--."बेटा ! इन हाथों की शोभा तो दुष्काल के समय बंगपुत्रों को मुक्तभाव से अन्न-धन अर्पण करने में थी। सेवा ही इन हाथों की सच्ची शोभा है । सोना और चाँदी हाथ की शोभा और सुन्दरता का कारण नहीं होता।"
मनुष्यता का यह एक रूप है । जो देवी अपने हाथ के आभूषण उतार कर भूखे-प्यासे बन्धुओं के पेट की ज्वाला को शान्त करती है, उनके सुख में ही अपना सुख देखती है, वह सच्ची मानव-देहधारिणी देवी है।
भारतीय संस्कृति में यह समर्पण की भावना, करुणा और दान के रूप में विकसित हुई है । करुणा मानव-आत्मा का मूल स्वर है। किन्तु खेद है, उस करुणा का जो सर्वव्यापक और सर्वग्राही रूप था, वह आज कुछ सीमित एवं संकीर्ण विधिनिषेधों में सिमट कर रह गया है । करुणा का अर्थ सिकुड़ गया है, काफी सिकुड़ गया है । करुणा और दया का अर्थ इतना ही नहीं है कि कुछ कीड़े-मकोड़ों की रक्षा कर ली जाए, कुछ बकरों और गायों को कसाई के हाथों से छुड़ा लिया जाए और अमुक तीर्थक्षेत्रों में मछली मारने के ठेके बन्द कर दिये जायँ । अहिंसक-समाजरचना की भावना जो आज हमारे समक्ष चल रही है, उसका मूल अभिप्राय समझना चाहिये । यह ठीक है कि पशु-दया भी करुणा का एक रूप है, पर करुणा और अहिंसा की यहीं पर इतिश्री नहीं हो जानी चाहिए, यह तो प्रारम्भ है। उसका क्षेत्र बहुत व्यापक और बहुत विशाल है। हमें व्यापक दृष्टिकोण ले कर आगे बढ़ना है । अपने मन की करुणा को आस-पास, समाज में व परिवार में बाँटते चलो। जो सुख-साधन और उपलब्धियाँ आपके पास हैं, उन्हें समाज के कल्याणमार्ग में लगाते चलो। समाज की सेवा में समर्पण का जो दृष्टिकोण है, वह एक व्यापक दृष्टिकोण है। व्यक्ति सामाजिक जीवन के दूर किनारों तक अपने वैयक्तिक जीवन की लहरों को फैलाता चलता है, उन्हें समाज के साथ एकाकार करता चलता है। वह जितना ही आगे बढ़ेगा, जितना ही अपने सुख को समाज के सुख के साथ जोड़ता चलेगा, उतना ही व्यापक बनता चला जायेगा। व्यक्तिवाद का क्षुद्र घेरा तोड़ कर समाजवाद एवं समष्टिवाद के व्यापक क्षेत्र में उतरता जायेगा।
वैदिक दर्शन में ईश्वर को सर्वव्यापक माना गया है। वह व्यापकता शरीरदृष्टि से है, अथवा आत्म-दृष्टि से या भावदृष्टि से है ? चूंकि यह भी माना गया है हर आत्मा परमात्मा बन सकता है । प्रत्येक आत्मा में जब परमात्मा बनने की योग्यता है, तो वस्तुतः आत्मा ही ईश्वर है। आत्मा आवरण से घिरा हुआ है, इसलिए जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org