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________________ अहिंसा की कसौटी है - मानव या किन्तु किसी भी स्थिति में यह संकल्प नहीं जगा कि उसे बनना क्या दानव ? जिस दिन आत्मा के सामने यह प्रश्न खड़ा होता है कि उसे क्या बनना है, उसी समय अहिंसा सामने आती है और कहती है- 'यदि तुझे इन्सान बनना है तो मुझे स्वीकार कर, मेरा अनुसरण कर, मेरे चरणों की पूजा कर, और मेरे चरणों पर अपना जीवन उत्सर्ग कर ।' ? क्या स्वयं की सुख-सुविधा के एक पशु भी अपनी शक्ति का अपनी जिन्दगी को यदि इन्सानियत के आदर्श साँचे में ढालना हो और मानवता के महान् स्वरूप को प्राप्त करना हो, तो समझना चाहिए कि अहिंसा के बिना प्राणी, मानव नहीं बन सकता। इस मिट्टी के ढेर को जीव ने अनन्त अनन्त बार ग्रहण किया और छोड़ दिया । इस प्रकार के ग्रहण करने और छोड़ देने से मानवता के रूप में अहिंसा की प्रथम झाँकी भी नहीं आती । अहिंसा की ज्योति मानव-मन में तभी जागृत होती है, जब वह अपने ही समान दूसरों की जिन्दगी को समझने के लिए तैयार होता है । जब मनुष्य अपने ही समान दूसरों की पीड़ाओं, सुख-दुःखों और इच्छाओं की अनुभूति करता है, तभी उसमें आनन्द व प्रेम का स्रोत प्रवाहित होता है । इसलिए भारतीय संस्कृति का स्वर सदैव पुकारता रहा है - मनुष्य ! तेरा आनन्द स्वयं-सुख के भोग में नहीं है, स्वयं की इच्छापूर्ति में ही तुम्हारी परितृप्ति नहीं है, किन्तु दूसरों के सुख में ही तुम्हारा आनन्द छिपा हुआ है, दूसरों की परितृप्ति में ही तुम्हारी परितृप्ति है । तुम्हारे पास जो धन-सम्पत्ति है, शक्ति है, वुद्धि है, वह किसलिए है ? तेरे पास जो ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धि है, उसका हेतु क्या है लिए ही यह सब कुछ है ? अपने सुखभोग के लिए तो प्रयोग करता है, अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार स्वयं की सुरक्षा करता है, इच्छापूर्ति करता है । फिर पशुता और मानवता में क्या अन्तर है ? मनुष्य का वास्तविक आनन्द स्वयं के सुखोपयोग में नहीं, बल्कि दूसरों को अर्पण करने में । मनुष्य के अपने पास जो उपलब्धि है, वह अपने बन्धु के लिए है, पड़ोसी के लिए है । अपने ही समान दूसरे चैतन्य के लिए समर्पण करने में जो सुख और आनन्द की अनुभूति होती है, वहीं अहिंसा भगवती की प्रथम झांकी है, जो मानवता के माध्यम से आती है । जब मनुष्य में इस प्रकार की इन्सानियत आ जाती है, तभी समझना चाहिए कि उसने अहिंसा परब्रह्म की पहली झाँकी कर ली है, और जितना-जितना वह अहिंसा परब्रह्म के विराट् रूप के निकट जाता है, जीवन में उतारता जाता है, उतनी - उतनी उसके अन्दर भगवत् - चेतना जागती जाती है, और तब वे दुष्कर्म और पाप जो उसे सब ओर से घेरे खड़े होते हैं, तुरन्त भाग खड़े होते हैं, सारी क्षुद्रताएँ मिट जाती हैं । विद्वान् श्री सतीशचन्द्र विद्याभूषण का नाम सुना होगा उदार एवं दयालु माता के दर्शन करने के लिए घर पर माता उस श्रद्धालु सज्जन के सामने आईं, तो वह आँखें की ओर देखने लगा । माताजी ने उसकी इस उत्कट बंगाल के सुप्रसिद्ध आपने ? एक व्यक्ति उनकी पहुँचा । जब विद्याभूषण की फाड़-फाड़ कर उसके हाथों Jain Education International ७१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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