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अहिंसा की कसौटी
के अन्दर ही तो विराजमान हैं ! किन्तु दुर्भाग्य से, अनादिकाल से हिंसा का पर्दा पड़ा हुआ है, काला लबादा पहिन रखा है और वह पर्दा नख से शिख तक पड़ा हुआ है । फिर आत्म-देव के दर्शन हों तो कैसे हों ? यदि उस आत्म-देव के दर्शन करना है तो हिंसा के काले पर्दे को उतारना होगा। जितने अंशों में वह कम होता जाएगा, उतने ही अंशों में आत्मा के दर्शन होते जाएँगे और उतने ही अंशों में फिर भगवान् का भी साक्षात्कार होता चला जाएगा। श्रावक बनने वाला व्यक्ति यदि श्रावक के रूप में पूरी अहिंसा नहीं पाल सकता, हिंसा का पूरा पर्दा नहीं उतार सकता तो भी जितना बन सके, उतना ही उतारने का प्रयास उसे करना चाहिए ।
अहिंसा भगवती की पूजा के लिए अन्यत्र कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं, किसी खास समय की भी जरूरत नहीं। दुकान में बैठ कर या घर में रह कर कहीं उसकी पूजा हो सकती है । जीवन के प्रत्येक क्षण में और प्रत्येक व्यापार में अहिंसा की पूजा-प्रतिष्ठा हो सकती है। अपनी मनोवृत्तियों को, अपने कर्मों को अहिंसा की तराजू पर ही तौलना श्रेयस्कर है। अहिंसा के प्रति गहरी और आग्रह-भरी भावना चित्त में उत्पन्न करनी चाहिए। अहिंसा ही परब्रह्म है
आचार्य समन्तभद्र, जो जैन-जगत् में एक बहुत बड़े दार्शनिक हो चुके हैं और जिनकी विचारधाराएं गम्भीररूप में हमारे सामने आज भी मौजूद हैं उन्होंने जब भी कुछ कहा, आत्मा की झाँकी खोल कर कहा । अहिंसा के सम्बन्ध में उनका एक बड़ा हृदयस्पर्शी बोल है-वह परबह्म, परमेश्वर, परमात्मा कौन है ? कहाँ है ? और किस रूप में है ? इस प्रश्नावली के उत्तर में आचार्य स्वयं कहते हैं-'इस संसार के प्राणियों के लिए, साधारण प्राणियों के लिए और जो भी विशिष्ट साधक हैं, उनके लिए भी साक्षात् परमबह्म अहिंसा है ।२ अहिंसा की उपासना एवं सेवा के अभाव में भगवान् की उपासना या सेवा एक अविवेक हो सकती है, एक भ्रान्ति हो सकती है, किन्तु सच्ची उपासना एवं सेवा कदापि नहीं हो सकती।
_अहिंसा को जब भगवान् कहा है तो वह अपने आप में स्वतः अनन्त हो गई, क्योंकि जो भगवान् होता है, वह अनन्त होता है। जिसका अन्त आ गया, वह भगवान् कैसा ? जिसकी सीमा बँध गई हो, वह और कुछ भले ही हो, किन्तु भगवान् कदापि नहीं हो सकता । आत्मा में अनन्त गुण हैं । भगवान् होने के लिए उनमें से प्रत्येक गुण को भी अपने असली रूप में अनन्त होना चाहिए । आत्मा में एक विशेष गुण ज्ञान है । जब यह ज्ञान गुण अनन्त और असीम बन जाता है, तभी भगवान् बना जा सकता है। इसी प्रकार जब चारित्र में अनन्तता आ जाती है, दर्शनगुण, वीर्य और दूसरे प्रत्येक
२ अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्
-~बृहत्स्वयम्भू-स्तोत्र
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