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अहिंसा-दर्शन
भी क्यों न जान पड़ता हो कि दुनिया की समस्त साधनाओं का गहन बोझ उस धर्म या व्यक्ति ने अपने ऊपर लाद लिया हो, किन्तु जब तक उसमें अहिंसा की भावना विद्यमान रहेगी, जीवों के प्रति दया का झरना बहता रहेगा, पीड़ितों के लिए संवेदना स्पन्दित रहेगी, तभी तक वह धर्म, वह क्रियाकाण्ड, वह तप और वह परोपकार धर्म की कोटि में गिना जायेगा, तभी तक सत्य भी धर्म है, नवकारसी से ले कर छह महीने तक की तपस्या आदि क्रियाकाण्ड भी धर्म है । यदि उसमें से अहिंसा निकल जाए तो फिर वह धर्म नहीं रहेगा, धर्म का निर्जीव-शवमात्र रहेगा, अथवा वहाँ एक प्रकार से अधर्म ही होगा । अहिंसा मूल में रहनी चाहिए, फिर चाहे वह थोड़ी हो या ज्यादा, न्यूनाधिक की बात यहाँ नहीं है। यहाँ तो यह बात है कि अहिंसा का जरा भी अंश क्यों न हों, पर होना चाहिए; अन्यथा धर्म का अस्तित्व नहीं रह सकता।
___कोई जीवन धर्ममय और विराट तब ही बनता है, जब अहिंसा की भावनाएँ उसमें लहराती हों, दूसरों पर अन्तःकरण की अजस्र वर्षा होती हो, और अपने जीवन के साथ दूसरों के जीवन को भी देख कर चला जाता हो । जिस प्रकार एक व्यक्ति को जीने का हक है, उसी प्रकार दूसरों को भी जीने का हक है । जहाँ जीओ और जीने दो यह महामंत्र जीवन के कण-कण में गूंजता हो, हृदय से मेल रखते हुए चलता हो; तो समझ जाना चाहिए कि वहाँ सच्ची अहिंसा है। जहाँ यह अहिंसा रहेगी, वहीं पर धर्म रहेगा। इस अहिंसा के अभाव में धर्म टिक नहीं सकता। इसी महासत्य की ओर संकेत करते हुए भगवान् महावीर ने प्रश्नव्याकरणसूत्र के संवरद्वार में जहाँ अहिंसा का वर्णन किया है, उसे 'भगवती' कहा है। अहिंसा भगवती के दर्शन कब ?
अहिंसा को भगवती का जो रूपक दिया गया है, वह अर्थहीन नहीं है । अहिंसा वस्तुतः भगवत्स्वरूप है, पूज्या है। जितनी श्रद्धा भगवान् के प्रति रखी जाती है, जितना प्रेम और जितना स्नेह भगवान् के प्रति होता है, उतना ही स्नेह और श्रद्धा साधक के मन में अहिंसा के प्रति भी होनी चाहिए । अहिंसा पूजा की चीज है, वह श्रद्धा का केन्द्र है।
अब प्रश्न उठता है कि भगवान के दर्शन कब होंगे ? उत्तर सीधा है-जब अहिंसा के दर्शन कर लोगे, तभी भगवान के दर्शन होंगे । अहिंसा के दर्शन करे नहीं, अहिंसा की झांकी देखे नहीं और यदि कोई उसे ठुकराता चले, उसकी ओर से पीठ मोड़ कर चले, तो भगवान् के दर्शन कैसे होंगे !
सबसे बड़े भगवान् तो अन्दर बैठे हैं, उनके ऊपर विकार-वासनाओं का पर्दा पड़ा है । आत्म-देव, जो सबसे बड़े भगवान् हैं, अन्दर ही तो बैठे हैं, इसी शरीर
१ 'एसा सा भगवती अहिंसा जा सा भीयाणं विव सरणं ।'
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