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________________ अहिंसा की कसौटी धर्म चाहे कोई भी हो, जैन अथवा जैनेतर, यदि गहराई के साथ उसका अध्ययन मनन, और चिन्तन किया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि प्रत्येक धर्म का प्राण या हृदय अहिंसा ही है । किसी का शरीर कितना ही बलवान और लम्बा-चौड़ा क्यों न हो, जब तक हृदय उसमें अपना काम करता रहता है, अर्थात् धक् धक् करता रहता है, तभी तक वह चलता है और उसका एक-एक अंग हरकत करता है । तभी तक उसका शरीर क्रियाशील है और उस पर उस व्यक्ति का अधिकार है। किन्तु ज्यों ही हृदय की गति में जरा भी गड़बड़ी हुई, हृदय का स्पन्दन जरा-सी देर के लिए भी रुका कि यह भारी-भरकम शरीर सहसा बेकार हो जाता है। सड़क पर चलता-चलता लुढ़क जाता है। यद्यपि हृदय, शरीर में छोटी-सी जगह रखता है, फिर भी सारे शरीर का उत्तरदायित्व, सम्पूर्ण प्राणशक्ति, उसी में केन्द्रित है । यदि हृदय धक-धक् करता रहेगा और रक्त को ठीक-ठीक फेंकता रहेगा, तो प्राणों की झंकार रहेगी, शरीर चैतन्य रहेगा यदि हृदय गुम हो जाए, उसकी हरकत बन्द हो जाए, वह काम करना छोड़ दे-तो क्या फिर शरीर स्थिर रह सकेगा ? कदापि नहीं । क्रियाशील शरीर के स्थान पर निष्क्रिय लाश-मात्र रह जाएगी। शरीर तभी तक रहता है, जब तक आत्मा उसमें स्थिर है । आत्मा के निकल जाने के बाद शरीर शरीर नहीं रहता । अहिंसारहित धर्म धर्म नहीं आगमों की परिभाषा में भी हृदयहीन शरीर, शरीर नहीं कहलाता । आगमकार एक-एक इंच नाप कर चलते हैं और जिनके पदचिन्हों को देख कर आज हम चलते हैं, वे यही कहते हैं कि जब तक शरीर में आत्मा है; तभी तक शरीर, शरीर है। जब आत्मा निकल जाती है, तो वह मिट्टी का ढेर है । भूतकाल के दृष्टिकोण से भले ही स्थूल भाषा में उसे शरीर कहते रहें। जो बातें शरीर के सम्बन्ध में देखी और सोची जाती हैं, वही धर्म के सम्बन्ध में भी पाई जाती हैं। कोई धर्म कितना ही ऊँचा क्यों न हो, उसका क्रियाकाण्ड कितना ही उग्र और घोर क्यों न हो, उसकी तपस्या कितनी ही तीव क्यों न हो, और ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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