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अहिंसा-दर्शन
युद्धविशेष और अहिंसा
प्रस्तुत चर्चा में एक बात खास-तौर से समझने जैसी है। वह यह कि सभी युद्ध एक धरातल पर नहीं होते हैं । जो युद्ध सुन्दर स्त्री पाने के लिए, दूसरों का राज्य या ऐश्वर्य हड़पने के लिए, अपने अहंकार की दुंदुभि बजाने के लिए लड़े जाते हैं, जिनमें आमूलचूल स्वार्थ की दुर्गन्ध उछलती है, वे युद्ध अधर्म-युद्ध हैं । इस प्रकार के युद्ध व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को पतन के गर्त में ले जाते हैं । उक्त युद्धों में हिंसा का ही एकान्त नग्न तांडव है । परन्तु जो युद्ध व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति के लिए न हो कर दीनदुर्बलों की रक्षा के लिए, नारीजाति के सतीत्व एवं सम्मान की रक्षा के लिए लड़े जाते हैं, जो युद्ध अन्याय एवं अत्याचार के प्रतीकारस्वरूप होते हैं, उन्हें भी अधर्म-युद्ध की कोटि में रखना, किसी भी तरह धर्मसंगत नहीं है । जो लोग राम-रावण के युद्ध को, अभी-अभी बांगलादेश के रक्षार्थ लड़े गए भारत-पाक-युद्ध को, दोनों पक्षों के लिए एक जैसा ही पापरूप मानते हैं, उन्हें क्या कहा जाए ? स्पष्ट है, जो युद्ध अपने बिना किसी स्वार्थ के एकमात्र अन्याय के प्रतीकार के लिए, अत्याचार से पीड़ितों की रक्षा के लिये लड़ा जाता है, उसमें बाह्य हिंसा के साथ अन्दर में अहिंसा का निर्मल स्रोत भी प्रवाहित है। .
हिंसा और अहिंसा का प्रश्न उतना मुख्य नहीं है जितना कि विवेक और अविवेक का प्रश्न मुख्य है । विवेक के अभाव में अहिंसा भी हिंसा हो जाती है, और विवेक के सद्भाव में हिंसा भी अन्दर में अहिंसा का रूप ले सकती है । इसलिए तो कहा है—जयणा धम्मस्स जयणी ।' यतना धर्म की मां है । यतना अर्थात् देश, काल परिस्थिति के अनुसार कर्तव्याकर्तव्य का उचित विवेक ।
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