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युद्ध, दण्ड और अहिंसा
पर हजारों बहनों ने अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे दी । परन्तु प्रश्न है, आततायियों के हृदय कब और कितने बदले ? सीता जैसी साध्वी नारी भी अपने सतीत्व के प्रभाव से, अपहरणकर्ता रावण को पराङ्मुख नहीं कर सकी। अहिंसा के पूर्णावतार भगवान् महावीर गोशालक का कितना हृदय बदल पाये ? और करुणा के देवता महान् बुद्ध भी क्या देवदत्त का हृदय परिवर्तन कर सके ? महावीर अपने युग के चेटक-कोणिक युद्ध को नहीं रोक सके। वृद्ध भी शाक्य और श्रावस्ती के संहारक संघर्ष को नहीं मिटा सके। उन जैसी अहिंसा की उच्च-साधना अन्यत्र कहाँ सम्भव है, जो स्वार्थान्ध आततायियों का हृदय बदल दे और अहिंसात्मक प्रतिकार का सार्वजनीन मार्ग प्रशस्त करे ? महावीर और अहिंसा
भौतिक क्षेत्र में कुछ अपराध-परायण लोगों के लिए शक्ति का प्रतिकार शक्ति ही है । अतएव अहिंसा के महान् वैज्ञानिक विवेचनकार भगवान् महावीर और उनके उत्तराधिकारियों ने गृहस्थसमाज के लिए सुरक्षा के प्रसंग में किसी प्रकार आक्रमण करने का तो निषेध किया, परन्तु दुष्ट विरोधी के आक्रमण का हिंसात्मक प्रतिकार करने के प्रति निषेध-सूत्र का एकान्त आग्रह नहीं किया। मनुष्य की अपनी भूमिका को लक्ष्य में न रख कर, केवल भावना के प्रभाव में बह जाना, फलस्वरूप किसी उच्च आदर्श को उस पर बलात् लादना और फिर उसके फलाफल की मीमांसा करना, न सिद्धान्त-संगत है और न तर्क-संगत ही। अतः इस प्रश्न पर गम्भीर विचार की आवश्यकता है। आदर्श एवं व्यवहार
अहिंसा एक आध्यात्मिक शक्ति है, वही एक विराट् आत्म-चेतना है । वह निष्कामभाव से अपने को उत्सर्ग कर देने का महान् मार्ग है। अहिंसा के पथ पर जीवन की आहुति दी जा सकती है, दी भी गई है । परन्तु वह किसी भौतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए नहीं। क्योंकि अहिंसा और भौतिक स्वार्थों का परस्पर कोई मेल नहीं है। अहिंसा एक परम धर्म है, यह सत्य है, किन्तु स्वार्थ-लोलुप एवं क्रूर व्यक्तियों के खूनी पंजों से समाज और राष्ट्र को बचाने के लिए, कभी-कभी एक बुराई होते हुए भी युद्ध अनिवार्य हो जाता है। इतिहास साक्षी है कि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ने रावण के साथ युद्ध को रोकने का बहुत कुछ प्रयत्न किया था, पर वह रुक न सका। महाभारत के युद्ध को रोकने के लिए, श्रीकृष्ण ने कितना प्रबल शान्ति-प्रयत्न किया था, पर उनको अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली । व्यक्ति के जीवन की मर्यादा समाज और राष्ट्र की मर्यादा से भिन्न है । युद्ध और अहिंसा मानव-जाति की एक ऐसी समस्या है, जिसका अभी तक मौलिक समाधान नहीं निकल पाया है । इसका मूल कारण है, सामूहिक जीवन में आदर्श और व्यवहार की विषमता । समाज का आदर्श ऊँचा हो, यह आवश्यक है, परन्तु वह सम्भवित हो, यह भी तो आवश्यक है !
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