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अहिंसा-दर्शन
सुरक्षा की जा सकती है ? क्या राष्ट्र पर किए गए आक्रमण का प्रतिकार अहिंसा के द्वारा सम्भव है ? सिद्धान्त और आदर्श :
परन्तु प्रश्न है कि क्या वह स्थिति वर्तमान में संभव है ? आदर्श अपने में महान् है, परन्तु उसकी योग्य भूमिका के हुए बिना आदर्श का अतिरेक मनुष्य-जाति को भ्रान्ति के वात्याचक्र में उलझा देता है । आदर्श, आदर्श है, वह व्यवहार में कब, कहाँ, कैसे और कितना उतरता है, यह गम्भीर विचार की अपेक्षा रखता है । आदर्श, व्यवहार में उतरना चाहिए, यह एक सुन्दर एवं आवश्यक सिद्धान्त है, किन्तु किस स्थिति का व्यक्ति उस आदर्श को अपने जीवन में कितना उतार सकता है, यह उसकी अपनी नैतिक अन्तःस्फूर्त शक्ति और देश-काल की परिस्थिति पर निर्भर करता है । हमें यह कभी नहीं भूल जाना चाहिए, कि आदर्श और सिद्धान्त पहले व्यक्ति के जीवन में उतरता है और फिर व्यक्ति के माध्यम से ही, वह धीरे-धीरे अंशानुक्रम से समाज
और राष्ट्र के जीवन में प्रवेश पाता है। प्रवेश पाता है, यह अभी सम्भावना ही है । अब तक का मानव-जाति का इतिहास तो ऐसी कोई साक्षी नहीं देता है। अतः राष्ट्र पर किए गए क्रूर एवं अधर्म आक्रमण के समय प्रतिकार-स्वरूप एक ओर युद्ध है और दूसरी ओर अहिंसा है। इन दोनों में से किसका चुनाव करना, इसका निर्णय बहुत कुछ राष्ट्रीय-चेतना और उसके देशकाल की परिस्थिति पर निर्भर करता है । अतः समाज और राष्ट्र का सम्मान और सांस्कृतिक जीवन जिस किसी भी यथाप्राप्त उपाय से अक्षुण्ण रह सके, उस प्रकार का प्रयत्न ही उस युग के व्यक्ति और समाज का कर्तव्य है।
एक व्यक्ति इतना ऊँचा हो सकता है कि अहिंसा के उच्च आदर्श के लिए सर्वस्व निछावर कर दे, और प्रतिफल की कुछ भी कामना न करे । इस प्रकार उसे अपने आपको होम देने का पूरा हक है। किन्तु समग्र समाज और राष्ट्र से तो यह आशा नहीं की जा सकती। समाज तथा राष्ट्र का आध्यात्मिक जीवन कभी भी एक स्तर पर विकसित नहीं होता, उसमें उतार-चढ़ाव रहता है और वह साधारण नहीं, काफी होता है । अतः उससे यह एकान्त आशा रखना कि वह समग्रभाव से अपने आपको अहिंसा के इतने ऊँचे आदर्श पर पहुँचाएगा, और प्रसन्नभाव से सर्वस्व का बलिदान कर प्रतिपक्षी के हृदय को परिवर्तन कर उसके द्वारा अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति कर सकेगा, असम्भव है । समग्र समाज और सम्पूर्ण राष्ट्र के द्वारा कभी भी यह तथ्य स्वीकृत नहीं हो सकता। यह ध्रुव सत्य है कि समाज और राष्ट्र में रहने वाले व्यक्तियों की भावना और उनके जीवन का दृष्टिकोण कभी एक जैसा नहीं हो सकता। अस्तु, अहिंसा से अन्याय का प्रतिकार करने की क्षमता हर किसी में नहीं हो सकती। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति संकट के समय अपने और अपने से सम्बन्धित जनसमूह के जीवन की सुरक्षा चाहता है । और यह सुरक्षा जिस किसी भी उपाय से उसे उपलब्ध हो वह,
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