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युद्ध, दण्ड और अहिंसा
सब करने को तैयार हो जाता है । यह सत्य है कि कुछ महानुभाव आध्यात्मिक साधना की विशिष्ट स्थिति पर पहुँच जाएं और साथ ही यह भी सत्य है कि जीवन के अमुक प्रसंगों पर वे अपने मनोनीत आदर्शों पर चलने के लिए स्वतन्त्र हैं, पर समग्र समाज और सम्पूर्ण राष्ट्र को वे अपने मनोनीत आदर्शो पर चलाने को स्वतन्त्र नहीं हैं । कारण स्पष्ट है कि व्यक्ति की अपनी सीमा है और समाज की अपनी सीमा है ।
दण्ड और अहिंसा :
अहिंसा के उपर्युक्त सन्दर्भ में एक जटिल प्रश्न उपस्थित होता है— दण्ड का । एक व्यक्ति अपराधी है, समाज की नीतिमूलक वैधानिक स्थापनाओं को तोड़ता है और उच्छृंखलभाव से अपने अनैतिक स्वार्थ की पूर्ति करता है। प्रश्न है— उसे दण्ड दिया जाए या नहीं ? यदि उस अपराधी व्यक्ति को दण्ड दिया जाता है, तो उसे शारीरिक, मानसिक पीड़ाएँ होती हैं । उसे कष्ट व परिताप होता है और कष्ट या परिताड़न देना हिंसा है और यदि दण्ड नहीं दिया जाता है, तो अन्याय को बढ़ावा मिलता है, समाज में अनैतिक कार्यों में और भी वृद्धि होती है, अन्याय-अत्याचार का प्रसार होता है और जन-जीवन असुरक्षित एवं अशान्तिपूर्ण हो कर और भी पीड़ित हो उठता है । अहिंसा का दर्शन अन्याय- प्रतीकार की इस दशा में क्या समाधान देता है
वस्तुत: अहिंसा - दर्शन हृदयपरिवर्तन का दर्शन है । वह मारने का नहीं, सुधारने का दर्शन है । वह संहार का नहीं, उद्धार एवं निर्माण का दर्शन है । अहिंसादर्शन का दण्ड के सम्बन्ध में कुछ ऐसा विचार है कि अपराधी के अन्दर स्नेह एवं सहानुभूति की भावना भर कर मनोवैज्ञानिक प्रणाली से उसमें सुधार किया जाए, अपराधी को मिटाने की अपेक्षा अपराध के कारणों को मिटाना, कहीं ज्यादा श्रेयस्कर है | क्योंकि अपराध एक मानसिक रोग है, जिसका इलाज प्रेम, स्नेह एवं सद्भाव के माध्यम से ही होना चाहिए। भारत सरकार ने भी अहिंसा के इस मनोवैज्ञानिक धरातल को आज के युग में युक्तियुक्त समझ कर अपनी राजनीति एवं दण्डनीति में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । बालसुधारकेन्द्र, वनिताविकासमण्डल, कैदियों के सुधार आदि के रूप में सरकार की ओर से किए गए इस दिशा में कुछ ऐसे ही प्रयत्न हैं ।
भगवान् महावीर का अहिंसा के सम्बन्ध में यह अमृतमय सन्देश है कि - पापी से पापी व्यक्ति से भी घृणा मत करो। बुरे आदमी और बुराई के बीच अन्तर करना चाहिए | बुराई सदा बुराई है, वह कभी भलाई नहीं हो सकती । परन्तु बुरा आदमी प्रसंग एवं वातावरण के अनुसार भला आदमी बन सकता है । मूल में कोई आत्मा बुरी है ही नहीं । असत्य के बीच में भी सत्य, अन्धकार के बीच में भी प्रकाश छिपा हुआ है । विष भी अपने अन्दर में अमृत को सुरक्षित रखे हुए है । अच्छे-बुरे - सब में ईश्वरीय ज्योति जल रही है । अपराधी व्यक्ति में भी यह ज्योति है, किन्तु दबी हुई है । हमारा प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि वह ज्योति बाहर आए, ताकि समाज में अपराध की मनोवृत्ति का अन्धकार दूर हो ।
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