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युद्ध, दण्ड और अहिंसा
____जीवन, जीवन है। सिद्धान्त और आदर्श जीवन के लिए होते हैं; जीवन, सिद्धान्त और आदर्श के लिए नहीं होता। जीवन के समक्ष सबसे विकट समस्या यह है कि उसे सुखमय बनाने के साधन क्या और कैसे होने चाहिए ? अतः भारतीय संस्कृति में, भारतीय धर्मों और भारतीय दर्शनों में जीवन और जगत् के सम्बन्ध में बड़ी गंभीरता से विचार किया गया है । जीवन चेतन है और जगत् जड़-चेतन-उभयात्मक है । अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाये रखने की भावना प्रत्येक चेतन में विद्यमान रहती है । सुखी चेतन ही अपने जीवन से प्रीति करता हो, यह बात नहीं है । दुःखी चेतन भी अपने जीवन से उतनी ही अधिक प्रीति करता है, जितनी कि सुखी चेतन करता है । अपना जीवन सबको प्रिय होता है। जीवन में स्वभावतः ही प्रेम, अहिंसा और मैत्री का भाव रहता है । अहिंसा, एक वह तत्त्व है, जिसकी सत्ता अनन्त-अनन्त काल से प्रत्येक चेतन में रही है और अनन्तकाल तक रहेगी । अहिंसा, एक वह परब्रह्म है, जो जगत् के प्राण-प्राण में और चेतन-चेतन में परिव्याप्त रहता है । यह बात अलग है कि उसकी अभिव्यक्ति परिस्थितिविशेष में कहीं पर अधिक होती है, तो कहीं पर कम होती है, पर उसकी सत्ता चेतनजगत् में सर्वत्र रहती है । जगत् का एक भी चेतन प्रीति एवं प्रेम से शून्य नहीं है । अपने प्रति और दूसरे के प्रति मनुष्य के मन में जो सहज प्रीति-भाव है, वस्तुतः वही अहिंसा है । अहिंसा : एक प्रश्न ?
__ अहिंसा के समक्ष आज जितने प्रश्न पर्वताकार बन कर खड़े हैं, या खड़े कर दिए गए हैं; सम्भव है, सुदूर अतीत में इतने प्रश्न कभी न वोभी रहे हों । आज वैचारिक जगत् क्या, पारिवारिक क्या, सामाजिक क्या, राष्ट्रीय क्या और अन्तर्राष्ट्रीय क्या-सर्वत्र उलझी कड़ियों को आज का प्रबुद्ध मानव अहिंसा के माध्यम से ही सुलझाना चाहता है । इस प्रलयंकर एवं भयंकर अणु-युग में अहिंसा ही मानव-जीवन के लिए आशा का मंगलप्रदीप है। मानव-जीवन के क्षितिज पर जब-जब निराशा के काले कजरारे मेघ छाए हैं, तब-तब उसने अपने जीवन की दुरूह समस्याओं के लिए दो पंथों का ही चयन किया है-शान्ति और युद्ध । जीवन की उलझी समस्याओं का सही समाधान किसमें है, शान्ति में अथवा युद्ध में ? यह एक विकट प्रश्न है । आज फिर इसी सन्दर्भ में यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि क्या अहिंसा के द्वारा राष्ट्र की
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