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अहिंसा-दर्शन
बड़े-बूढ़ों की इज्जत खत्म हो जाए और हजारों-लाखों माताओं, बहनों को जीवन-मर रोना पड़े। दुर्योधन ; तुम अन्याय कर रहे हो ! अत्याचार पर उतारू हो गये हो !! यह मार्ग ठीक नहीं है। वस्तुतः राज्य पर तो पाण्डवों का ही अधिकार है। यदि तुम उनका पूरा राज्य उन्हें नहीं लौटाना चाहते हो, तो सिर्फ पाँच गाँव ही उन्हें दे दो । मैं पाण्डवों को समझा दूंगा और उन्हें इतने में ही सन्तुष्ट कर लूगा।"
जो कृष्ण दुर्योधन के सामने युद्ध को टालने के लिए इस प्रकार झोली फैला कर खड़े होते हैं, वे हिंसा के देवता हैं या अहिंसा के ? उन्होंने युद्धजन्य हिंसा को टालने का कितना अथक प्रयत्न किया! जो आगे आने वाली भयंकर हिंसा है, उसके विरोधस्वरूप उनके कोमल हृदय में कितनी ऊँची अहिंसा छिपी है ? पाँच गाँव का समझौता कितने बलिदानपूर्वक किया जाता है-इसका अन्दाज, तो इसकी गहराई में उतर कर देखने से ही लग सकता है ।
तात्पर्य यह है कि कृष्ण हिंसा के राक्षस नहीं थे, बल्कि अहिंसा के साक्षात् देवता थे। किन्तु जब उनकी नहीं चली और दुर्योधन की दुर्बुद्धि से कोई समझौता नहीं हो सका तो विवश हो कर लड़ाई लड़नी ही पड़ी। वह लड़ाई राज्य-सुख के लिए नहीं लड़ी गई । अन्याय और अत्याचार को रोकने का जब कोई दूसरा मार्ग नहीं रह गया, तब युद्ध का मार्ग अपनाया गया। इस स्थिति में हम कृष्ण को अहिंसा की दृष्टि से देवता के रूप में, और दुर्योधन को हिंसा की दृष्टि से राक्षस के रूप में देखते हैं।
इन सब बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से प्रतीत होता है कि केवल अनुग्रह ही अहिंसा नहीं है और अहिंसा का दायरा भी इतना छोटा नहीं है कि मात्र कष्ट न पहुँचाना और सांत्वना देना ही अहिंसा हो, बल्कि अत्याचार को रोकने का प्रश्न उपस्थित होने पर एक अंश में, निग्रह भी अहिंसा का रूप धारण कर लेता है। जैन-धर्म अनेकान्तवादी है ; जब हम उसे उसी दृष्टि से देखेंगे, तभी उसका सही रूप दिखाई देगा और हमारी समस्त भ्रान्तिपूर्ण भावनाओं का समुचित समाधान हो जाएगा।
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