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अहिंसा के दो रूप
कल्याण हो, संघ और समाज का भी भला हो, तो वहाँ भी उस अंश में अहिंसा की सुगन्ध आती है। शत्र के प्रति हित-बुद्धि रखते हए उसे होश में लाने के लिए दण्ड दिया जा सकता है, यह कोई अटपटी और असंगत बात नहीं है । यह तो अहिंसक साधक की सुन्दर जीवन कला है। कृष्ण का कार्य हिंसावर्द्धक या हिंसा निवारक ?
___ मुझे उत्तर-प्रदेश और पंजाब आदि प्रान्तों में अधिक घूमने का मौका मिला है। वहाँ राष्ट्रीय स्वयं-सेवकसंघ वालों की चर्चाएं ज्यादा होती हैं ! कृष्ण को युद्ध का देवता माना जाता है। "महाभारतयुद्ध के मूल प्रेरक एवं नेता कृष्ण हैं। उनकी प्रेरणा पर ही महाभारत का युद्ध हुआ, जिसमें नर-संहार की कोई सीमा न रही। उनकी शंखध्वनि में प्रलय का अट्टहास गूंजता था । अतः हमें जीवन के लिए कृष्ण के आचार को ही कर्तव्यबिन्दु मानना है।" कुछ लोगों को ऐसा कहते हुए सुना है । अनेक बार इस प्रसंग को ले कर जैन-धर्म और उसकी अहिंसा पर बहुत ही भद्दी छींटाकशी भी की जाती है।
संयोगवश जब मेरा उनसे वास्ता पड़ा तो मैंने कहा-आपने कृष्ण के मार्ग को ठीक-ठीक नहीं समझा है और उनके जीवन से कुछ नहीं सीखा है । कृष्ण का मार्ग तो जैन-धर्म का ही एक आंशिक रूप है। जब आप कृष्ण के जीवन पर चलते हैं तो वस्तुतः जैन-धर्म पर ही चलते हैं ; और जब जैन-धर्म पर चलते हैं तो कृष्ण के मार्ग पर चलते हैं। महाभारत का युद्ध होने से पहले जब पाँचों पाण्डव वनवास की अवधि समाप्त कर कृष्ण के पास द्वारिका में आ जाते हैं तो दुर्योधन आदि को समझाने के लिए पहले पुरोहित भेजा जाता है । किन्तु जब उसे कामयाबी नहीं होती है, तो उसके बाद कृष्ण स्वयं शान्तिदूत का कार्य करने को तैयार होते हैं। कृष्ण क्या साधारण व्यक्ति थे ? वे उस युग के प्रवर्तक थे। तत्कालीन कर्म-क्षेत्र में सबसे बड़े कर्मयोगी थे और सबसे बड़े सम्राट् थे । वे स्वयं दूत बन कर दुर्योधन की सभा में जाते हैं।
यदि कभी आपके ऊपर ऐसा काम पड़ जाए तो आप यही कहेंगे--- 'हमें क्या पड़ी है ? ऐसे छोटे काम के लिए भला क्यों नाहक अपनी नाक छोटी करवाएँ ?' इस प्रकार दूसरों के लिए दूत कर्त्तव्य का दायित्व आ जाने पर साधारण आदमी की नाक पर भी सिकुड़न आ जाती है।
परन्तु कृष्ण ने अपनी मान-मर्यादा की कोई परवाह नहीं की, अपनी प्रतिष्ठा का कुछ मी विचार नहीं किया और दूत बनकर दुर्योधन के पास निस्संकोच चले गये। दुर्योधन की सभा में पहुँच कर उन्होंने जो भाषण दिया, वह संसार के भाषणों में अपना विशेष महत्त्व रखता है। महाभारत के अध्ययन में जब मैंने यह भाषण पढ़ा तो मैं गद्गद हो गया। उन्होंने कहा-"मैं रक्त की नदी नहीं बहाना चाहता । रक्त की नदी बहाते हुए जो वीभत्सरूप दिखाई देता है, उसे मैं अपनी आँखों से देखना नहीं चाहता। मैं नहीं चाहता कि नौजवानों की शक्ति व्यर्थ ही खत्म हो जाए,
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