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अहिंसा-दर्शन
युवती की आवश्यकता थी, और उसके लिए वे हजारों के गले कटवाने पर प्रस्तुत हो रहे थे ; ऐसी कल्पना स्वप्न में भी नहीं करनी चाहिए । इस स्थिति के लिए तो जैनधर्म किसी भी तरह की स्वीकृति नहीं दे सकता । उक्त दशा में वह यही कहेगावासना-पूर्ति के लिए एक नारी की जीवित मूर्ति चाहिए, तो हजारों मिल सकती हैं। फिर क्यों व्यर्थ ही आग्रहवश संहार का पथ अपनाया जाए ?
राम के लिए तो यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता। जैन रामायण में एक वर्णन आता है कि रावण ने राम के पास सन्देश भेजा था कि 'एक सीता को रहने दो। मैं उस एक के बदले में कई हजार सुन्दर कुमारिकाएँ तुम्हारे लिए भेज दूंगा । तुम आनन्द के साथ जीवन व्यतीत करना । मैं आनन्द की सब सामग्री भी तुम्हें दे दूंगा, मात्र सीता को छोड़ दो।' किन्तु उस समय राम के सामने भोग-विलास का प्रश्न नहीं था। वे इस दृष्टि से सीता को पाने का प्रयत्न नहीं कर रहे थे । वे तो अपने पुनीत कर्त्तव्य का पालन कर रहे थे । वे तो अत्याचार का प्रतीकार करने के लिए कटिबद्ध हो रहे थे । एक पत्नी और एक नारी के अपमान की रक्षा के लिए उन्होंने प्रण किया था कि प्राण दे कर भी उसकी रक्षा करना है। यदि राम इस कर्तव्य का पालन करने के लिए सन्नद्ध हैं तो यह गृहस्थ-जीवन की मर्यादा का पालन है और उस मर्यादा का पालन करते समय जैन-धर्म हिंसा या अहिंसा की दुहाई दे कर किसी का हाथ नहीं पकड़ता है, न मौन ही साधता है।
राम ने रावण के साथ युद्ध किया, परन्तु युद्ध करना उनका उद्देश्य नहीं था। सीता को प्राप्त करना ही उनका मुख्य उद्देश्य था । उस अवसर पर वे अपने कर्तव्य की प्रेरणा की उपेक्षा नहीं कर सकते थे। ऐसी स्थिति में युद्ध का उत्तरदायित्व राम पर पड़ता है या रावण पर ? रावण स्वयं अत्याचार करने को तैयार होता है और उसके सामने माताओं तथा बहनों के पवित्र सतीत्व का कोई मूल्य नहीं है। उधर राम कहते हैं--"मुझे कुछ नहीं चाहिए। न तो पृथ्वी चाहिए, न सुन्दर ललनाएँ, और न तेरी सोने की लंका का एक रत्ती भर सोना ही चाहिए । मुझे तो मेरी सीता लौटा दे ।" जब राम की यह बात पूरी नहीं हुई तो अन्त में युद्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि राम ने सती और सतीत्व की रक्षा के लिए ही अत्याचार से युद्ध किया था । तो जैन-धर्म कर्तव्य की दृष्टि से-रामचन्द्र को युद्ध से नहीं रोकता है। अहिंसावादी जैन-धर्म अत्याचारी को न्यायोचित दण्ड देने का अधिकार, गृहस्थ को देता है ।
इस कथन का मूल अभिप्राय यह है कि गृहस्थ श्रावक की भूमिकाएँ कितनी भी ऊँची क्यों न हो, किन्तु जैन-धर्म का आदेश स्पष्ट है कि जो अन्यायी हो, अत्याचारी हो, विरोधी हो, केवल मानसिक विरोधी नहीं, वास्तविक विरोधी हो, समाज का द्रोही हो-उसे यथोचित दण्ड देने का अधिकार श्रावक हर समय रखता है । परन्तु उस अवसर पर श्रावक को राग-द्वेष की हीन भावना से कार्य नहीं करना है; अपितु कर्तव्य की उच्च भावना को सामने रखना है। यदि वह ऐसा सोचता है कि शत्रु का भी
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