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अहिंसा के दो रूप
यही प्रश्न जैन-धर्म को हल करना है । इसी दुविधा का समाधान जैन-धर्म को तलाश करना है।
लोग कह सकते हैं कि ऐसे अवसर पर मौन रहना ठीक है । किन्तु राम कहते हैं.---'मैं दुविधा में हूँ और निर्णय करना चाहता हूँ कि क्या करूं?' जिससे वे पूछते हैं, व्यवस्था माँगते हैं, वही मौन धारण कर लेता है। किन्तु मौन धारण कर लेने से क्या किसी समाज की उलझी हुई समस्याओं का हल निकाला जा सकता है ? फिर ऐसे विकट और नाजुक प्रसंग पर, जो धर्म मौन धारण कर लेता हो, वह क्या जीवनव्यापी धर्म कहला सकता है ? क्या यह मौन उसकी दुर्बलता का द्योतक नहीं होगा ? क्या उस मौन से उसकी कार्य-क्षमता में बट्टा नहीं लगेगा ? क्या यह उस धर्म का लंगड़ापन सिद्ध नहीं करेगा? ऐसे अवसर पर व्यक्ति को अपना कर्त्तव्य पहचानने के लिए क्या किसी दूसरे धर्म की शरण में जाना चाहिए ? यदि जैन-धर्म वास्तव में जीवन-व्यापी धर्म है, यदि वह दुर्बल नहीं है, लँगड़ा-लूला भी नहीं है; अपितु पूर्णतया क्षमताशाली है, तो उसकी शरण में आने पर किसी दूसरे धर्म से भीख माँगने की आवश्यकता नहीं रहती । कर्त्तव्य की पुकार पर वह मौन नहीं रहेगा, उचित कर्त्तव्य की सूचना अवश्य देगा।
___ हाँ, तो जैन-धर्म क्या सूचना देता है, और किस ढंग से देता है ? एक तरफ घोर हिंसा है ! और दूसरी तरफ एकमात्र सीता की रक्षा का प्रश्न है !! इस अवसर पर रामचन्द्र सोचते हैं---'मुझे क्या करना चाहिए ?' जो लोग यह समझते हैं कि जहाँ ज्यादा जीव मरते हैं, वहाँ ज्यादा हिंसा होती है । उनके इस विचार से तो रामचन्द्रजी को चुप हो कर निष्क्रिय रूप से किसी कोने में बैठ जाना चाहिए ! क्योंकि युद्ध में बहुत से जीवों की हिंसा होती है और वे जीव भी एकेन्द्रिय नहीं, पंचेन्द्रिय हैं ! और फिर उनमें भी अधिकांशतः मनुष्य ! किन्तु जैन-धर्म ऐसा नहीं कहता। जैन-धर्म तो यह कहता है कि यदि तुम सीता को बचाने के लिए जा रहे हो तो वहाँ केवल एक सीता का ही साधारण प्रश्न नहीं है, बल्कि हजारों सीताओं की रक्षा का गम्भीर सवाल है ! जिसे प्राण-पण से हल करना राम का कर्त्तव्य है। यदि आज एक गुण्डा किसी एक सती पर अत्याचार करता है तो वह वास्तव में एक ही महिला की रक्षा का प्रश्न नहीं है; अपितु उसके पीछे हजारों-लाखों गुण्डों के सामूहिक अत्याचार का गम्भीर प्रश्न है। यदि आज एक गुण्डे के अत्याचार को सिर झुका कर सहन कर लिया जाएगा तो कल सैकड़ों, और परसों हजारों गुण्डे सिर उठाएँगे, और इस प्रकार संसार में किसी सती का सतीत्व तथा मान-मर्यादा सुरक्षित नहीं रह सकेगी । दुनिया में अत्याचार, अनाचार और बलात्कार का ऐसा दौर शुरू हो जाएगा कि जिसकी कोई सीमा ही नहीं होगी। फिर बेचारे धर्म को स्थान कहाँ रह जाएगा ?
अतएव राम के सामने केवल एक सीता का प्रश्न नहीं था, बल्कि हजारों सन्नारियों की रक्षा का प्रश्न था । राम को अपने भोग-विलास के लिए एक सुन्दर
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