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________________ अहिंसा के दो रूप ५१ के उद्देश्य से कर रही है या मन में उठी वात्सल्य की हिलोर से प्रेरित हो कर कर रही है ? धर्म-शास्त्रों में वर्णन आया है कि आचार्य को माता और पिता का निर्मल एवं स्नेह-सिक्त हृदय रख कर साधक को दण्ड देना चाहिए शत्रु का क्रूर हृदय रख कर नहीं । दण्ड-पात्र यदि समझदार है तो वह भी यही समझता है कि जो दण्ड उसे दिया जा रहा है-वह पिता के हृदय से दिया जा रहा है और उसमें कल्याण की भावना समाविष्ट है, शत्रु की भावना तो दण्ड से कोसों दूर है। जो कल तक अनुग्रह कर रहे थे, वही आज अकारण इतने कठोर क्यों बन सकते हैं ? अस्तु, वह समझता है कि आचार्य उसे सुधारने के लिए ही इतने कठोर बने हैं; किन्तु उनकी इस कठोरता में भी करुणा की विशुद्ध भावना विद्यमान है। चने के पौधे को जब तक ऊपर-ऊपर से काटा नहीं जाता, तब तक वह ठीक तरह बढ़ नहीं पाता, और जब उसे ऊपर से काट-छाँट दिया जाता है तो झट उसका विकास शुरू हो जाता है। इसी प्रकार जब तक साधक की गलती पर प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता, तब तक उसका विकास रुका रहता है । किन्तु प्रायश्चित्त ले लेने पर विकास में वृद्धि होती है और उसका मार्ग अवरुद्ध नहीं होता। निस्सन्देह ऐसे साधक ही अपने जीवन में फलते-फूलते हैं और महान् बनते हैं। दण्ड और दया के मध्य सन्तुलन हो दण्ड अविचारित नहीं होना चाहिए। उस पर दया का अंकुश रहना चाहिए। समाज में व्यक्तियों की मनःस्थिति में जब तक भेद है, तब तक दण्ड मिट नहीं सकता दण्ड के बाद दया के प्रयोग व करुणा के भाव से व्यक्ति का जीवन परिवर्तित हो जाता है। रामराज्य में दण्ड साधन है, साध्य नहीं। अन्ततः दण्ड खत्म हो जाता है । भरतजी के मन में माता कैकेयी के प्रति आक्रोश था, विद्वेष नहीं। भरत के आक्रोश ने माँ की ममता को काटा और यही उन्हें अभीष्ट था। मंथरा पर लक्ष्मणानुज शत्रुघ्न ने प्रहार किया, भरत ने उसे छुड़ा दिया । दण्ड और दया के मध्य में यही सन्तुलन 'रामचरितमानस' का आदर्श है । दोनों के सन्तुलन द्वारा ही समाज सुव्यवस्थित रह सकता है। निग्रह भी अहिंसा का एक रूप है। वस्तुतः यह एक अपेक्षा है, जिसके बल पर जैन-धर्म कहता है कि निग्रह भी अहिंसा है। अपेक्षा तो हर जगह और हर समय ४ जं मे बुद्धाऽणुसासंति, सीएण फरुसेण वा। मम लाहोत्ति पेहाए पयओ तं पडिसुणे ।। अणुसासणमोवायं दुक्कडस्स य चोयणं । हियं तं मण्णइ पण्णो वेसं होइ असाहुणो ।' -उत्तराध्ययन सूत्र १, २७-२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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