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अहिंसा-दर्शन
रहती है। निरपेक्ष वचन एकान्तमय होता है और वह जैन-धर्म को कभी मान्य नहीं है, कहीं भी स्वीकार नहीं है। जब हम इस विषय का चिन्तन की दृष्टि से सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, और गहराई से विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि यद्यपि 'अनुग्रह' और 'निग्रह', यह दो शब्द ऊपर से अलग अलग अर्थ के वाचक मालूम पड़ते हैं । परन्तु गहराई में जाने पर अन्ततः दोनों का उद्देश्य और प्रयोजन एक ही हो जाता है। आचार्य के द्वारा साधक के हितार्थ किया हुआ निग्रह भी अनुग्रह का ही एक रूप है। इसके विपरीत कभी-कभी अनुग्रह भी हिंसा का रूप धारण कर लेता है । इस सम्बन्ध में एक उदाहरण इस प्रकार है
मान लीजिए, एक बच्चा बीमार है। डाक्टर ने उसे मिठाई खाने के लिए मना कर दिया है । पर उसकी माता स्नेहवश कहती है -'बेटा, मिठाई खा ले ।' इस दशा में माता का यह अनुग्रह क्या होगा ? तात्पर्य यह है कि हर एक जगह एक-सी बात लागू नहीं होती है। अनुग्रह तथा निग्रह दोनों ही समयानुकूल अपेक्षाकृत हैं। अतएव कभी अनुग्रह का रूप निग्रह में प्रकट हो सकता है, और कभी निग्रह का रूप अनुग्रह में हो सकता है । इसके लिए भावना-जगत् को देखना नितान्त आवश्यक है ।
यहीं पर एक प्रश्न और उपस्थित होता है। यदि यह माना जाए कि निग्रह दण्ड है, और दण्ड देना हिंसा है ; ऐसी स्थिति में यदि एक बारह व्रतधारी श्रावक है और वह अपने व्रत-विधान का पूरी तरह पालन कर रहा है। किन्तु साथ ही वह एक सम्राट भी है, राजा है या अधिकारी नेता है। एक दिन उसके सामने एक जटिल समस्या आ जाती है-एकाएक आक्रमण का प्रश्न खड़ा हो जाता है। उसके देश पर कोई अत्याचारी विदेशी राजा आक्रमण कर देता है। अब वह श्रावक राजा क्या उपाय करे ? जो आक्रमण करने वाला शत्रु राजा है वह द्रुतगति से चढ़ कर आने वाला है। आक्रामक के रूप में वह देश को लूटता है और प्रजाजन को पीड़ित करता है। देश की लूट के साथ वहाँ की संस्कृति और सभ्यता को भी नष्ट करता है, माताओं और बहिनों की आबरू भी बिगाड़ता है। इधर वह श्रावक राजा देश का नायक बना है और प्रजा की रक्षा का महान् उत्तरदायित्व भी लिए हुए है। तब ऐसी स्थिति में उसका क्या कर्तव्य होना चाहिए ? राष्ट्र की सुरक्षा और शान्ति के लिए वह क्या उपाय करेगा ? वह निग्रह का मार्ग अपना कर देश की समुचित रक्षा करेगा, अथवा स्वदेश की लाखों निरीह जनता को अत्याचारी आक्रामक के चरणों में अर्पण कर अन्याय के सामने मस्तक टेक देगा ?
जैन-धर्म इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहता है कि इस प्रकार के प्रसंगों पर हिंसा मुख्य नहीं है, अपितु अन्याय का प्रतीकार करना मुख्य है और जनता की समुचित रक्षा ही मुख्य है। वह श्रावक राजा अपनी ओर से किसी पर व्यर्थ आक्रमण करने नहीं जाएगा। जो पड़ोसी देश व्यवस्थापूर्वक शान्ति से रह रहे हैं, वहाँ पर
अपनी साम्राज्यशाही विजय का झंडा गाड़ने के लिए नहीं पहुँचेगा। किन्तु जब कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only
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