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अहिंसा-दर्शन
आती हैं तो हजारों देवता उन लहरों को दबाने का प्रयत्न करते हैं । वे लहरें दबती हैं या नहीं ? यह दूसरी बात है, किन्तु हमारे हृदय की लहरें तो ज्वार-भाटे की भाँति उछाल मार रही हैं और एक बड़ा तूफान पैदा कर रही हैं । जब इतना भयङ्कर तूफान आता है, तो क्या होता है ? तब हम उस त्याग और संयम की दिव्यशक्ति से उस समुद्र को निरन्तर दबाते हैं। कम से कम मन के महासागर में तो यह चीज चलती ही रहती है। फिर भी कभी मन काबू से बाहर हो जाए तो उसका क्या उपाय है ? यही कि आत्म-शुद्धि करने के लिए तैयार रहना चाहिए। ऐसा साधक गलती होने पर फौरन आचार्य के पास पहुंचे, तब तो ठीक है; अन्यथा स्वयं आचार्य दण्ड की व्यवस्था करते हैं और इस तरह अनुग्रह करते-करते कभी निग्रह का प्रसंग भी उपस्थित हो जाता है। अर्थात् यदि आचार्य में अनुग्रह करने की शक्ति है, तो निग्रह करने की भी शक्ति है। जब वे अनुग्रह करते हैं तो पूरा अनुग्रह, और जब दण्ड देते हैं तो वह भी पूरा और मर्यादा के अनुसार। उन्हें संघ ने यह अधिकार दिया है और उनका यह उत्तरदायित्व भी है। यदि कोई आचार्य किसी भी कारण से इस उत्तरदायित्व की उपेक्षा करता है तो वह आचार्यपद पर नहीं रह सकता। ऐसी स्थिति में उन्हें अपना यह पद स्वयं त्यागना होगा या संघ उनको पद-त्याग के लिए बाध्य करेगा।
अनुग्रह की तरह निग्रह भी कर्त्तव्य :
___ इस प्रकार उचित प्रसंग पर दोषी को दण्ड देना आचार्य का अनिवार्य कर्तव्य है, परन्तु जब दण्ड दिया जाता है तो दण्ड पाने वाले को कष्ट होता है । जब कष्ट होता है तो वहाँ हिंसा होगी या अहिंसा ? यदि वह दण्ड हिंसा का सूचक है और केवल तकलीफ पहुँचना ही हिंसा है तो इस स्थिति में दण्ड देने का अधिकार आचार्य को नहीं रह जाता है। क्योंकि साधु-जीवन में हिंसा का कार्य नहीं किया जा सकता। किन्तु जब हम उस निग्रह एवं दण्ड को अहिंसा मानते हैं तो आचार्य के लिए दोषी को दण्ड देने का अधिकार सर्वथा न्याय-संगत हो जाता है। आचार्य की ओर से दिया जाने वाला दण्ड हिंसा की बुद्धि से और द्वेष की भावना से नहीं दिया जाता है। जब आचार्य निग्रह करते हैं तो शास्त्रानुसार कड़े से कड़ा दण्ड देते हैं, किन्तु उनके मन में अहिंसा रहती है। दया और कल्याण की भावना लहराती हैं, क्योंकि उस साधक के प्रति उनकी आत्म-बुद्धि की भावना है।
बच्चा जब गन्दा हो जाता है तो माता उसे स्नान कराती है और उसके वस्त्र साफ करती है, तब वह चिल्लाता है, हल्ला मचाता है। स्नान से उसे तकलीफ होती है, किन्तु अबोधपन के कारण वह नहीं समझता कि मुझे क्यों परेशान किया जा रहा है। परन्तु जो कुछ भी किया जा रहा है, उसके सम्बन्ध में माता के हृदय से पूछिए कि वह बालक की सफाई और स्वच्छता कष्ट देने के लिए कर रही है, अर्थात्-हिंसा
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