SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ अहिंसा - दर्शन पशुओं को इधर-उधर नहीं भटकने देगा और मर्यादा से बाहर पशुओं की हरकत देखकर उन पर डण्डे का उचित प्रयोग भी करेगा । वाले का रूपक भगवान् महावीर के लिए भी प्रयुक्त किया गया है, क्योंकि भगवान् महागोप थे । आचार्यों को भी संघ का गोप कहा गया है, अर्थात् साधु और श्रावक जब तक अनुशासन की मर्यादा में चलते हैं, तब तक आचार्य उन्हें दण्ड नहीं देते, बल्कि अपार अनुग्रह की रस-वर्षा करते हैं । परन्तु जब आचार्य यह देखते हैं कि कोई मर्यादा के बाहर गया है और उसी गति से चला जा रहा है तो उस समय वे उसे डाँटते हैं, और यदि कोई गलती करता है, तो उसे दण्ड भी देते हैं । जब आचार्य दण्ड देते हैं, तो आखिर दण्ड तो अपना तद्रूप प्रभाव डालेगा ही । आचार संहिता के अनुसार साधु का यह कर्त्तव्य बतलाया गया है कि कदाचित् साधु मर्यादा से बाहर चला जाए या गलती कर बैठे तो उसे अपने को तत्काल संभाल लेना चाहिए और स्वयं ही आचार्य को अपने दोषयुक्त कार्य की सूचना दे देनी चाहिए कि मुझसे अमुक गलती हो गई है। चाहे मनुष्य कितना ही सावधान क्यों न रहे, किन्तु जब तक वह साधक है और प्रारम्भिक साधना में लगा हुआ है, तब तक उससे कहीं न कहीं छोटी-मोटी भूल हो जाए ऐसा स्वाभाविक है । जागृति इस सम्बन्ध में भगवान् महावीर ने कहा है कि प्रत्येक क्षण जीवन में जागते रहो । क्या कारण है कि जागते हुए भी सो जाओ ? और यदि बाहर में सोए हुए हो, तब भी अन्दर में पूर्णतः जागृत रहो । जब साधु जागृत अवस्था में है तब तो वह जागता है ही; किन्तु जब निद्रावस्था में हो तब भी उसे जागता ही समझो। वह जब अकेला है, तब भी जागता है । जब वह सब के बीच में है, तब भी जागता है । नगर में है, तब भी जागता है, और यदि वह वन में वास कर रहा है तब भी जागता रहता है । साधु के सम्बन्ध में जो पाठ आता है, उसमें कहा गया है । साधु को प्रत्येक परिस्थिति में एक ही निर्दिष्ट मार्ग पर चलना है । अकेले में भी और हजारों के बीच में भी सोते हुए भी, और जागते हुए भी, वन में भी और नगर में भी । साधना जीवन की यही समरसता है । वह अपने लिए है, अपने विकास १ 'सुत्ताऽमुणिणो' 'मुणिणो सया जागरति' - आचारांग २ ' से गामे वा नगरे वा रण्णे वा दिया वा राओ वा, एगओ वा परिसागओ वा, सुत्वा जागरमाणे वा ॥" - दशवैकालिक सूत्र, चतुर्थ अध्ययन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy