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अहिंसा के दो रूप
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यदि जैन-धर्म के अनुसार अनुग्रह ही अहिंसा है और निग्रह अहिंसा नहीं है, बल्कि हिंसा ही है तो आचार्य के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए । जैन-धर्म में हिंसा को कोई स्थान नहीं है, और जब हिंसा के लिए स्थान नहीं है तो हिंसा-स्वरूप दण्ड के लिए भी कोई स्थान नहीं है। और जब दण्ड के लिए स्थान नहीं है तो, फिर आचार्य के लिए भी स्थान नहीं होना चाहिए। क्योंकि आचार्य अपने औचित्य के अनुसार दोषी को दण्ड देता है।
आचार्य संघ का नेतृत्व करता है । वह देखता रहता है कि कौन क्या कर रहा है, और किस विधि से कर रहा है ? कौन साधक किस पगडण्डी पर चल रहा है सब ठीक-ठीक चल रहे हैं या कोई पथ-विचलित हो गया है ? यह निरीक्षण कार्य आचार्य का ही उत्तरदायित्व है । जब सब ठीक-ठीक चलते हैं तो सबको उनका अनुग्रह मिलता रहता है । बहुधा महान् आचार्यों को देखा है कि छोटों के प्रति उनका अनुग्रह अपेक्षाकृत अधिक रहता है । जिस प्रकार पिता, पुत्र को प्रेम की दृष्टि से देखता है, उसी प्रकार आचार्य भी अपने छोटे से छोटे शिष्य पर अपार प्रेम बरसाते हैं । झुल्लकों के समान ही वृद्धों के लिए भी वे सेवा का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। वे निरन्तर इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि संघ में किसी को किसी प्रकार का कष्ट न होने पाये। यदि किसी पर कष्ट आ भी पड़ता है तो उसकी शान्तिमय निवृत्ति के लिए वे सद्भावना प्रेरित करते हैं । शिक्षार्थी मुनियों का अध्ययन ठीक चल रहा है या नहीं, और स्थविरों की सेवा की सुव्यवस्था है या नहीं ? छोटे बालक जो प्रायः संघ में आये हैं, उनका समुचित विकास तथा प्रगति हो रही है या नहीं। छोटों के प्रति समाज में छोटे-बड़े की ऐसी उपेक्षा भावना तो नहीं है कि-अरे ! छोटे साधुओं में क्या रखा है; इत्यादि इस तरह अपने उत्तरदायित्व के नाते आचार्य छोटी-बड़ी सभी बातों का ध्यान रखते हैं और सभी के प्रति यथोचित अनुग्रह रखते हैं ।
आचार्य : संघ का अहिंसक गोप
परन्तु आचार्य का अनुग्रह तभी तक प्राप्त होता है, जब तक साधक मर्यादा में चलते हैं और अनुशासन का पूर्णतः पालन करते हैं । इसी कारण आचार्य को गोप की उपमा दी गई है । भगवान् महावीर को भी महागोप कहते हैं, अर्थात्-सबसे बड़े ग्वाले । ग्वाला अपनी गायों, मैंसों तथा अन्य पशुओं को वन-भूमि की ओर ले कर चलता है । जब तक पशु ठीक-ठीक चलता है तब तक वह अपने दण्ड का प्रयोग नहीं करता; अर्थात् डण्डा नहीं मारता । यदि भावावेश में बिना कारण ही डण्डा मार देता है, तो समझना चाहिए कि वह पागल हो गया है । जब ग्वाला इस प्रकार का पागलपन प्रस्तुत करे तो उसे पशुओं को चराने का अधिकार नहीं देना चाहिए । इसके विपरीत जब कोई पशु दौड़ कर आस-पास के खेत में मुंह डाल देता है तो उसे विवेक के साथ डण्डे का प्रयोग करना चाहिए और पशु को खेत से बाहर कर देना चाहिए। वह
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