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अहिंसा के दो रूप : अनुग्रह और निग्रह
अपने जीवन में किसी को कष्ट न पहुँचाना, अपने व्यवहार के द्वारा किसी प्राणी को पीड़ा न देना, अपितु उसे सुख-शान्ति पहुँचाना हो अहिंसा है। किसी जीव पर अनुकम्पा करना, दया करना अहिंसा है ।
- इस प्रकार जब यह निश्चित है कि अनुग्रह करना अहिंसा है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि निग्रह करना क्या है ? निग्रह में हिंसा ही है, अथवा अहिंसा भी हो सकती है ?
जब कभी समाज के सामने यह गम्भीर प्रश्न उपस्थित हुआ है, तभी वह सोच में पड़ गया है और कभी-कभी इधर-उधर भटक भी गया है। इस प्रश्न का जैसा चाहिए था, वैसा सीधा स्पष्ट उत्तर नहीं दिया जा सका है । यदि कभी किसी ने उत्तर देने का साहस भी किया है, तो उसे ठीक-ठीक समझने की कोशिश नहीं की गई है। फलतः लोग अभी तक भ्रम में पड़े हुए हैं।
अब देखना यह है कि इस विषय में जैन-धर्म क्या कहता है ? जैन-धर्म अनुग्रह में तो अहिंसा को स्वीकार करता ही है; पर निग्रह के विषय में उसका क्या अभिमत है ? दण्ड में अहिंसा है या नहीं ?
यदि दण्ड में अहिंसा नहीं है, क्योंकि जिसे दण्ड दिया जाता है, उसे स्वभावतः कष्ट होता है, और जब कष्ट होता है तो निग्रह या दण्ड अहिंसा नहीं, हिंसा बन जाता है; और जब वह हिंसा बन गया तो फिर जैन-धर्म में आचार्य का कोई महत्त्व नहीं होना चाहिए। परन्तु हम शासन-व्यवहार में देखते हैं, वहाँ आचार्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
आचार्य एक साधु है और जो साधुता एक सामान्य साधु में होती है, वही आचार्य में भी होती है । ऐसा नहीं, कि साधु तो पाँच महाव्रती हो और आचार्य कोई छठा-सातवाँ महाव्रत भी पालता हो । इस प्रकार सामान्य साधु और आचार्य दोनों ही साधुता तथा महाव्रतों की दृष्टि से तो समान हैं । हाँ, व्यक्तिगत जीवन की आचारविषयक न्यूनाधिकता हो सकती है और वह तो सामान्य साधुओं में भी हो सकती है, और वह होती ही है । परन्तु उससे साधु और आचार्य का भेद नहीं हो सकता। फिर आचार्य का महत्त्व किस रूप में है ?
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