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________________ क्या अहिंसा अव्यवहार्य है ? ४५ "सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जि। तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥" -सब जीव जीना चाहते हैं, और सुखपूर्वक जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । इसलिए किसी का प्राणवध करना बड़ी क्रूरता है, पाप है। इसलिए निर्ग्रन्थ साधक उससे दूर रहते हैं। मरने की कल्पना ही बड़ी क्रूर और अप्रिय होती है । राह चलते किसी मरणासन्न जर्जर बूढ़े को भी यदि ‘मर जाओ' कह दिया जाएँ तो उसका हृदय रोष से भर उठता है, मरने का स्वप्न भी आ गया, तो आदमी का चेहरा फीका पड़ जाता है, चिन्ताओं से हृदय व्याकुल हो जाता है। कल्पना कीजिए, मरने की कल्पना भी जब भयंकर है, तब साक्षात् मृत्यु तो कितनी भयंकर होगी? स्व-परसुख के लिए अहिंसा का व्यवहार अनिवार्य कुछ लोग कहते हैं कि किसी को कष्ट होता है तो उसके अपने कर्म से, हमें उसके सुख-दुःख से क्या मतलब ? हम किसी की हिंसा न करें, अपने आपको हिंसा के पाप से बचाये रखें, बस हमारे लिए इतना ही पर्याप्त है। यह एक दृष्टि है। पर भगवान् महावीर की उपर्युक्त व्याख्या की गहराई में जायेंगे तो पता चलेगा कि वहाँ अहिंसा का उद्गम करुणा से हुआ है। अनुकम्पा से अहिंसा का विचार प्रस्फुटित हुआ है। सब प्राणी जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते। इसलिए---"तम्हा पाणिवहं घोरं ।" किसी को मारना क्रूरता है, उसकी जीवन-इच्छा के साथ खिलवाड़ है। यह एक बहुत ही सूक्ष्म विचार है और अहिंसा-गंगोत्री की धारा में आकण्ठनिमग्न हुए बिना इसकी गहराई को नापना कठिन है । चैतन्य के साथ आत्मानुभूति किए बिना यह विचार अंकुरित और पल्लवित नहीं हो सकता। निष्कर्ष यह है कि हिंसा से जीने की कल्पना अपने और दूसरे सभी प्राणियों के लिए भयंकर और अव्यवहार्य है, मगर अहिंसा से जीने की कल्पना सभी के लिए सुखद और व्यवहार्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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