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अहिंसा-दर्शन
यह प्रतिज्ञा कर ले कि मैं हिंसा ही करूंगा-जो मिलेगा उसकी हिंसा किए बिना नहीं रहूँगा, तो क्या वह एक दिन भी अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रह सकेगा ? अहिंसा की प्रतिज्ञा ले कर तो लम्बी जिन्दगी गुजारी जा सकती है और गुजारी भी गई है, किन्तु हिंसा की प्रतिज्ञा करके भला कितने मिनट बिताए जा सकते हैं ? हिंसा की प्रतिज्ञा लेने वाला अधिक से अधिक उतनी ही देर जिन्दा रह सकता है जितनी देर उसे अपना गला घोंट कर आत्म-हत्या में लग सकती है ।
हम अपने जीवन में निन्यानवे फीसदी तो प्रेम से काम लेते हैं और एक फीसदी हिंसा, घृणा या द्वेष से काम लेते हैं । तब फिर यह समझना कठिन नहीं है कि अहिंसा 'अव्यवहार्य' नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि वास्तविकता यह है कि अहिंसा के द्वारा ही जीवन-व्यवहार चलाया जा सकता है और वस्तुतः अहिंसा ही जीवन है, रक्षा है; और हिंसा मृत्यु है, संहार है । अहिंसा-पालन क्यों करें ?
संसार का प्रत्येक प्राणी चाहे वह देव है, मानव है, या पशु-पक्षी है, और तो क्या, एकेन्द्रिय भी है, तो भी सबके अन्दर में एक ही कामना जग रही है, एक ही हिलोर उठ रही है, और वह है-सुख प्राप्त करने की इच्छा ।
भगवान् महावीर ने प्राणियों की इस मानसिक भूमिका का विश्लेषण करते हुए कहा था
"सव्वे पाणा सुहसाया, दुह-पडिकूला" -संसार के समस्त प्राणी सुख की इच्छा करते हैं, दु:ख से कतराते हैं !
विश्व के सभी धर्म जो कि वास्तव में धर्म हैं, उन सबका विकास इसी आधार पर हुआ है। उनके चिन्तन का स्रोत इसी उत्स से निकला है। अहिंसा का विचार, इसी सिद्धान्त के आधार पर खड़ा हुआ है। इसी में दया और करुणा की दिव्यध्वनि निकलनी शुरू हुई। इसी भूमिका पर सत्य का अनन्त प्रकाश प्रगट हुआ। अस्तेय
और ब्रह्मचर्य का विचार इसी सिद्धान्त पर पल्लवित हुआ है। और अपरिग्रह की पृष्ठभूमि भी यही विचार रहा है ।
हम हिंसा क्यों नहीं करें? इस तक का समाधान यही है कि हिंसा से दूसरे प्राणी को कष्ट होता है, चैतन्य को पीड़ा होती है ।
__भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि आप अहिंसा का उपदेश करते हैं, किन्तु प्रश्न है कि हम उसका पालन किसलिए करें? इसके उत्तर में भगवान महावीर ने जो अपने अहिंसा-मूलक दर्शन की पृष्ठभूमि प्रस्तुत की है, वह बहुत ही मनोवैज्ञानिक और प्राणी की समग्र चेतना की अनुभूति से जुड़ी हुई है । उन्होंने कहा
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