________________
४ । अहिंसा : विश्वशान्ति की आधारशिला
-
-
-
-
-
-
भगवान् महावीर का अहिंसाधर्म एक उच्च कोटि का आध्यात्मिक एवं सामाजिक धर्म है। यह मानव जीवन को अन्दर और बाहर--दोनों ओर से प्रकाशमान करता है । महावीर ने अहिंसा को भगवती कहा है । मानव की अन्तरात्मा को, अहिंसा भगवती बिना किसी बाहरी दबाव, भय, आतंक अथवा प्रलोभन के सहज अन्त:प्रेरणा देती है कि मानव विश्व के अन्य प्राणियों को भी अपने समान ही समझे उनके प्रति बिना किसी भेद-भाव के मित्रता एवं बन्धुता का प्रेमपूर्ण व्यवहार करे । मानव को जैसे अपना अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख अभीष्ट है, वैसे ही अन्य प्राणियों को भी अपना अस्तित्व तथा सुख प्रिय एवं अभीष्ट है.----यह परिबोध ही अहिंसा का मूल स्वर है। अहिंसा 'स्व' और 'पर' की, अपने और पराये की, घृणा एवं वैर के आधार पर खड़ी की गई भेदरेखा को तोड़ देती है। अहिंसा का धरातल
अहिंसा विश्व के समग्र चैतन्य को एक धरातल पर खड़ा कर देती है। अहिंसा समग्र जीवन में एकता देखती है, सब प्राणियों में समानता पाती है। इसी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था---'एगे आया'--आत्मा एक है, एकरूप है, एक समान है। चैतन्य के जाति, कुल, समाज, राष्ट्र, स्त्री, पुरुष आदि के रूप में जितने भी भेद हैं, वे सब आरोपित भेद हैं, बाह्य निमित्तों के द्वारा परिकल्पित किये गए मिथ्या भेद हैं। आत्माओं के अपने मूल स्वरूप में कोई भेद नहीं है । और जब भेद नहीं है तो, फिर मानवजाति में यह कलह एवं विग्रह कैसा ? त्रास एवं संघर्ष कैसा ? घृणा एवं वैर कैसा ? यह सब भेदबुद्धि की देन है और अहिंसा में भेदबुद्धि के लिए कोई स्थान नहीं है । अहिंसा और भेदबुद्धि में न कभी समन्वय हुआ है और न कभी होगा। आज जो विश्वनागरिक की कल्पना कुछ प्रबुद्ध मस्तिष्कों में उड़ान ले रही है, 'जय जगत्' का उद्घोष कुछ समर्थ चिन्तकों की जिह्वा पर मुखरित हो रहा है, उसको अहिंसा के द्वारा ही मूर्तरूप मिलना संभव है । दूसरा कोई ऐसा आधार ही नहीं है, जो विभिन्न परिकल्पनाओं के कारण खण्ड-खण्ड हुई मानव जाति को एकरूपता दे सके । प्रत्येक मानव के अपने सृजनात्मक स्वातन्त्र्य एवं मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की गारण्टी, जो विश्वनागरिकता तथा जयजगत् का मूलाधार है, अहिंसा ही दे सकती है, और कोई नहीं । अहिंसा विश्वास की जननी है और विश्वास परिवार, समाज तथा राष्ट्र के पारस्परिक सद्भाव, स्नेह और सहयोग का मूलाधार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org