________________
.
अहिंसा-दर्शन
है। अविश्वास के कारण इधर-उधर बेतरतीब बिखरे हुए मानवमन को अहिंसा विश्वास के मंगलसूत्र में जोड़ती है, एक करती है। अहिंसा 'संगच्छध्वम्, संवदध्वम्' की ध्वनि को जन-जन में अनुगुजित करती है, जिसका अर्थ है-साथ चलो, साथ बोलो। मानवजाति की एकसूत्रता के लिए यह एक साथ' का मन्त्र सबसे बड़ा मन्त्र है । यह 'एक साथ' का महामन्त्र मानवजाति को व्यष्टि की क्षुद्र भावना से समष्टि की व्यापक भावना की दिशा में अग्रसर करता है। अहिंसा का उपदेश है, सन्देश है, आदेश है कि व्यक्तिगत अच्छाई, प्रेम और त्याग से-आपसी सद्भावनापूर्ण पावन परामर्श से, केवल साधारणस्तर की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को ही नहीं, जाति, सम्प्रदाय, संस्कृति और राष्ट्रों की विषम से विषम उलझनों को भी सुलझाया जा सकता है और यह सुलझाव ही भेद में अभेद का, अनेकता में एकता का विधायक है । यही वह पथ है, जिस पर चलकर मानव मानव को मानव समझ सकता है, उसे प्रेम की बाँहों में भर सकता है। इसी से विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति का स्वप्न पूर्ण हो सकता है। अहिंसाभावना का विकास
मानव अपने विकास के आदिकाल में अकेला था, वैयक्तिक सुख-दुःख की सीमा में घिरा हुआ, एक जंगली जानवर की तरह । उस युग में न कोई पिता था, न कोई माता थी, न पुत्र था, न पुत्री थी, न भाई था और न बहन थी। पति और पत्नी भी नहीं थे। देह-सम्बन्ध की दृष्टि से ये सब सम्बन्ध थे, फिर भी सामाजिक नहीं थे । इसलिए कि माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन और पति-पत्नी आदि के रूप में तब कोई भी भावनात्मक स्थिति नहीं थी। एकमात्र नर-मादा का सम्बन्ध था, जैसा कि पशुओं में होता है। सुख-दुखः के क्षणों में एक-दूसरे के प्रति लगाव का, सहयोग का जो दायित्व है, वह उस युग में नहीं था। इसलिए नहीं था कि तब मानवचेतना ने विराट रूप ग्रहण नहीं किया था। वह एक क्षुद्र वैयक्तिक स्वार्थ की तटबन्दी में अवरुद्ध थी। एक दिन वह आया, जब मानव इस क्षुद्र सीमा से बाहर निकला, केवल अपने सम्बन्ध में ही नहीं, अपितु दूसरों के सम्बन्ध में भी उसने कुछ सोचना शुरू किया। उसके अन्तर्मन में सहृदयता, सद्भावना की ज्योति जगी और वह सहयोग के आधार पर परस्पर के दायित्वों को प्रसन्नमन से वहन करने को तैयार हो गया। और जब वह तैयार हो गया, तो परिवार बन गया। परिवार बन गया, तो माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन और पति-पत्नी आदि सभी सम्बन्धों का आविर्भाव हो गया । और जैसे-जैसे मानव मन भावनाशील हो कर व्यापक होता गया, वैसे-वैसे पारिवारिक भावना के मूल मानवजाति में गहरे उतरते गए। फिर तो परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र आदि के विभिन्न क्षेत्र भी व्यापक एवं विस्तृत होते चले गए। यह सब भावात्मक विकास की प्रक्रिया, एक प्रकार से, अहिंसा का ही एक सामाजिक रूप है। मानव-हृदय की आन्तरिक संवेदना की व्यापक प्रगति ही तो अहिंसा हैं। और यह संवेदना की व्यापक प्रगति ही परिवार, समाज और राष्ट्र के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org