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अहिंसा-दर्शन
यही सब कुछ है । अगर यह नहीं है, तो कुछ भी नहीं है । अहिंसा के क्रान्तद्रष्टा ऋषि उक्त बीज की जितनी चिन्ता करते हैं, उतनी इधर-उधर के विधि-निषेधरूप फल, फूल और टहनियों की नहीं । बाह्य व्यवहार के आधार पर खड़े किये गये अहिंसा के विधि-निषेध देश, काल तथा व्यक्ति की स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं, मूल बीज नहीं बदलता है । किन्तु मध्यकाल के सामाजिक व्यवस्थापक, चाहे वे धार्मिक रहे हों या राजनीतिक, अहिंसा को उसकी मौलिक सूक्ष्मता से पकड़ नहीं सके हैं। निवृत्ति और प्रवृत्ति के स्थूल परिवेश में ही अहिंसा को मानने और मनवाने के आसान तरीके अपनाते रहे और यथाप्रसंग तात्कालिक समाधान निकालते रहे। किन्तु हिंसा की समस्या ऐसी न थी, जो प्रचलित परम्परा के स्थूल चिन्तन से एवं विधि-निषेध के भावहीन विधानों से समाधान पा जाती। वह नये-नये रूपों में प्रकट होती रही और मानव-जीवन के सभी पक्षों को दूषित करती रही । यही कारण है कि हजारों वर्षों से समस्या समस्या ही बनी रही। कोई भी समाधान उभरते प्रश्नों को मिटा नहीं सका। यदि हम इधर-उधर के विकल्पों में न उलझ कर अहिंसा की मूल भावना को समझने का प्रयत्न करें, तो आज भी अहिंसा के मूल केन्द्रस्वरूप आन्तरिक वत्ति पर अहिंसक समाज की रचना हो सकती है । मैं यहाँ स्पष्टरूप से कह देना चाहता हूँ कि अहिंसा के आधार पर परस्पर सहयोगी समाज की रचना के लिए निवृत्ति और प्रवृत्ति के प्रचलित व्यामोह के ऐकान्तिक आग्रह को हमें क्षीण करना होगा, तभी हम मानव की आन्तरिक वृत्ति से सम्बन्धित अहिंसा के वास्तविक रूप को समझ सकेंगे। भय एवं प्रलोभन पर आधारित अहिंसा स्थायी नहीं
अहिंसा का मर्म समझाते हुए मैंने कुछ लोगों को सुना है-'किसी को कष्ट मत दो, किसी के प्राणों का वध मत करो, किसी को रुलाओ मत । अगर तुम दूसरों को कष्ट दोगे, तो तुम्हें भी कष्ट भोगने होंगे, अगर किसी को मारोगे, तो तुम्हें भी मरना पड़ेगा। अगर किसी को रुलाओगे, तो तुम्हें भी रोना होगा।' अपने दुःखों की संभावना उन्हें पीड़ित कर देती है और इसी चिन्तनधारा में दूसरों को परिताप पहुँचाने से अपने आपको बचाने की कोशिश करते हैं । इस उपदेश ने मनुष्य के मन में एक भय की भावना पैदा की, जो स्वयं अपने में एक हिंसा है। उक्त स्थिति में प्रवृत्ति और निवृत्ति के स्थूल स्तर पर अहिंसा प्रकाशमान होती दिखने लगती है और हम इतने भर में सन्तोष कर लेते हैं । परन्तु अन्य किसी प्रसंग विशेष पर जब यह समझाया जाता है कि 'अपने दुश्मनों को समाप्त करो, स्वर्ग मिलेगा। यज्ञ में पशुओं को देवताओं के लिए समर्पित कर दो, वे प्रसन्न हो कर तुम्हें सुख-समृद्धि देंगे । संघर्षरत प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त कर दो, तुम्हें सम्मान मिलेगा, सम्पत्ति मिलेगी, पद मिलेगी।' इतिहास का हर विद्यार्थी जानता है कि इन प्रलोभनों ने मनुष्य से कितने कर और भयानक कार्य करवाए हैं। प्रश्न है कि यह सब किस कारण हो सका है ? स्पष्ट है कि भय के माध्यम से हिंसा का त्याग कराया गया था। ज्यों ही भय के स्थान पर प्रलोमन आ खड़ा हुआ कि
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