SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा का शाश्वतरूप : वृत्ति में अहिंसा २५ आज भी उलझ रहे हैं । अथवा इसका दूसरा ही एक विकल्प है । वह यह कि अहिंसा स्वयं तो एक जीवित जागृत तत्त्व है, जनकल्याणकारी है, पर उसको सही अर्थ में हमने जाना नहीं है। ऐसा होता है कि कभी-कभी बड़ी लम्बी कालयात्रा के बाद अच्छे से अच्छे सिद्धान्त धूमिल हो जाते हैं या धूमिल कर दिये जाते हैं । मैं इस प्रश्न का दूसरा उतर सोचता हूँ। अहिंसा का सम्बन्ध हृदय के साथ वस्तुत: अहिंसा का सम्बन्ध मनुष्य के हृदय के साथ है, मस्तिष्क के साथ नहीं है ; तर्क-वितर्क के साथ नहीं है, कुछ बँधे-बंधाए विवेकशून्य विश्वासों के साथ नहीं है; विभिन्न शब्दों के जाल में बंधो और उलझी हुई भाषा के साथ भी नहीं है, बल्कि अन्तर्जीवन के साथ है, अन्दर की गहरी आध्यात्मिक अनुभूति के साथ है। अहिंसा की भूमि जीवन है । जब भूमि से वृक्ष का सम्बन्ध टूट जाता है, तो वह फिर हराभरा एवं विकसित नहीं रह सकता । प्रवक्ता को अपनी बात साफ कहनी चाहिए, अतः साफ और बेलाग कह रहा हूँ की अहिंसा भी जीवन से टूट चुकी है। मूल से असंपृक्त रख कर उसे किस प्रकार पल्लवित रखा जा सकता है ? यही कारण है कि अहिंसा आज केवल स्थूल व्यवहार की क्षुद्र परिधि में सीमित हो गई है । जनजीवन में उसका रससंचार क्षीण एवं क्षीणतर हो गया है । और इस प्रकार अहिंसा के प्राणों की एक तरह से हत्या ही हो गई है। अगर अहिंसा की प्राण-प्रतिष्ठा करनी है, तो आवश्यकता है, अहिंसा को हम स्थूल व्यवहार की संकीर्ण परिधि से मुक्त कर व्यापक बनाएँ, जीवन की सूक्ष्म अनुभूति एवं हृदय की गहराई तक उसे अवतरित करें। वृत्ति में अहिंसा ही अहिंसा का स्थायी रूप निवृत्ति और प्रवृत्ति के मध्य में वृत्ति है। वृत्ति का अर्थ है---चेतना का भाव । यही भाव मन को तरंगित करता है । अहिंसा इन्हीं उदात्त एवं कल्याणकारी तरंगों के आधार पर जीवन के स्थूल व्यवहारों व विधि-निषेधों के रूप में प्रगट होती है । इसे ही हम प्रवृत्ति और निवृत्ति कहते हैं। धरती के समग्र आध्यात्मिक दर्शन व्यवहार के स्थूल विधि-निषेध के साथ अहिंसा का सम्बन्ध स्थापित नहीं करते हैं,२ मानवमन की मूल पवित्र वृत्ति के साथ ही अहिंसा को सम्बन्धित करते हैं । यही वृत्ति जीवन है । यही अहिंसा का बीज है । १ अज्झत्थं सव्वओ सव्वं, दिस्स पाणे पियायए । न हणे पाणिणो पाणं, भयवेराओ उवरए । -उत्तराध्ययन ६७ २ जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया । संति तेसिं पइट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा ॥ -सूत्र. श्रु. १ अ. ११ गा. ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy