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________________ अहिंसा का शाश्वतरूप : वत्ति में अहिंसा ३ अहिंसा के सम्बन्ध में आज तक जितना लिखा गया है और कहा गया है, शायद ही किसी और विषय पर इतना लिखा गया हो या कहा गया हो। पर, इसके साथ ही जितनी भ्रान्तियाँ अहिंसा के सम्बन्ध में आज तक हुई हैं, और किसी विषय में नहीं हुई। इस विरोधात्मक स्थिति का एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक कारण है । इसी कारण का मैं स्पष्टीकरण कर देना चाहता हूँ । अहिंसा की आत्मा जो सूक्ष्म है, यदि उसे स्थूल बना दिया जाता है, तो उसकी आत्मा समाप्त हो जाती है। यही बात अहिंसा के सम्बन्ध में भी हुई है । अहिंसा मात्र बाह्यव्यवहार का स्थूल विधि-निषेध नहीं है, बल्कि अन्तरचेतना का एक सूक्ष्म भाग है। किन्तु दुर्भाग्य से कुछ ऐसी स्थिति बनती गई कि अहिंसा का सूक्ष्मभाव निरन्तर क्षीण होता गया और उसको स्थूल व्यवहार का, ओघबुद्धि से मात्र दिखाऊ विधि-निषेधों का रूप दे दिया गया। फलतः अहिंसा की ऊर्जा और आत्मा एक प्रकार से समाप्त ही हो गई। जब किसी सिद्धांत की ऊर्जा एवं आत्मा समाप्त हो जाती है, तो वह निष्प्राण तत्त्व जीवन को तेजस्वी नहीं बना सकता । वह जीवन की समस्याओं का सही समाधान नहीं खोज सकता । वह स्वयं ही एक दिन एक समस्या बन जाता है । क्या स्थूल व्यवहार से सम्बन्धित अहिंसा के सम्बन्ध में भी ऐसा नहीं हुआ है ? पिछली कितनी ही सहस्राब्दियों से हमने अहिंसा की महान् धर्म के रूप में उद्घोषणा की है । अहिंसा को जीवन का परम सत्य मान कर उसकी उपासना की है । सामाजिक, आध्यात्मिक और राजनीतिक जीवन की सुरक्षा का आधार अहिंसा को माना है, विश्वव्यापी सिद्धांत के रूप में हजारों वर्षों से अहिंसा को मान्यता दी है । हजारों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी इसकी चर्चा एवं परिचर्चा होती रही है । परन्तु प्रश्न है, कहाँ है इन सबकी फलनिष्पत्ति ? हम अब तक अहिंसक समाज की रचना क्यों नहीं कर पाए ? इस प्रश्न के दो ही उत्तर हो सकते हैं। जिस अहिंसातत्त्व की हम बात करते हैं, वह केवल बौद्धिक व्यायाम बन कर रह गया है। ऐसा लगता है, जैसे वह काल्पनिक दुनिया का कोई अलौकिक तत्त्व है, जिसका धरती की दुनिया के साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है । गलत समस्या के आसपास हजारों मस्तिष्क व्यर्थ ही उलझते रहे हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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