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________________ अहिंसा-दर्शन का गौरव बढ़ेगा? यह कैसी विडम्बना है, एक ओर पहिनने के कपड़ों पर यदि खून का एक भी धब्बा लग जाय तो हृदय ग्लानि से बेचैन हो जाता है और उस खून के धब्बे को धो देने पर ही मन को शांति महसूस होती है । मन्दिर, मस्जिद आदि में खून से सने कपड़े पहन कर जाना वजित माना गया है । इसी तरह रक्त से सने कपड़े पहन कर सभा-समाज में बैठना भी अच्छा नहीं लगता, तब मला पशु-पक्षियों का मांस खाना कैसे सभ्यतासूचक माना जायगा ? प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपने अतीत की याद करके संकल्प करना चाहिए कि वह इस क्रूरतापूर्ण हिंसा का विरोध करेगा। प्रत्येक व्यक्ति समस्त प्राणियों के लिए मंगलकामना करे और विश्व को अभय दे। गीता में कहा है कि स्वयं अभय रहो और दूसरों को भी अभय दो। स्वयं आनन्द से जीओ दूसरों को आनन्द से जीने दो। केवल मनुष्य ही नहीं, पशुजगत् को भी आनन्द से जीने का अधिकार दो । आज बहुत से अर्थशास्त्री अपने किताबी ज्ञान और आँकड़ों के बल पर, यह तर्क पेश करते हैं कि निरुपयोगी पशुओं को मार दिया जाय तो अन्न की कमी दूर होगी, चारा बचेगा। यह कैसा अर्थशास्त्र है ? पर, मैं वह अर्थशास्त्र नहीं चाहता, जो करुणा को खत्म करके चारे की रक्षा करे। यह कैसा बचत का अर्थशास्त्र है, जो निरीह प्राणियों के प्राणों पर हाथ साफ करने की इजाजत देता है ? क्या घर के बूढ़े लोगों को इसलिए मार दिया जाय कि वे अब कोई काम नहीं कर सकते ? वे केवल अनाज खाते हैं पर, उत्पादन नहीं करते ? यह कोरा तर्कशास्त्र है, अर्थशास्त्र नहीं। अर्थशास्त्र से भी मानवीय भावना एवं संस्कारों का मूल्य अधिक है। यह सब समस्याएँ भावना से ही हल हो सकती हैं । वास्तव में इस विशाल जगत् में कोई भी चीज निरुपयोगी नहीं है। कुशल वैद्य के हाथ में आ कर जहर भी अमृत बन जाता है। जब जहर जैसी चीज भी निरुपयोगी नहीं है, तब दूसरा कोई भी प्राणी निरुपयोगी कैसे हो सकता है ? यह निरुपयोगिता का अर्थशास्त्र जिस मस्तिष्क से पैदा हुआ है, वह मस्तिष्क ही कहीं निरुपयोगी तो नहीं हो गया है ? एक बच्चे के लिए पंसा भी निरुपयोगी हो सकता है, पर क्या वास्तव में पैसा निरुपयोगी है ? यदि कोई उसका उपयोग करना न जाने तो उस वस्तु का क्या दोष है ? __ भगवान् महावीर के समय की एक कहानी है । जीवक वैद्य तक्षशिला में विद्याध्ययन समाप्त कर स्नातक बने और गुरु की आज्ञा ले कर राजगृही चलने को तैयार हुए तो गुरु ने पूछा-"वत्स ! तुम्हारा अध्ययन तो समाप्त हो चुका है, पर तुम्हें एक काम और करना है । यहाँ से चार-चार कोस चारों ओर घूमो तथा एक ऐसी चीज लाओ कि जिसका उपयोग औषधि के रूप में न हो सके ।" आज्ञा पा कर शिष्य गया । चारों ओर खूब चक्कर लगा कर गुरु के सामने खाली हाथ आ कर खड़ा हो गया। गुरु ने पूछा- "कहो वत्स ! काम किया ?" जीवक बोला-"गुरुदेव ! मुझे अफसोस है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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